Friday, December 22, 2017

"औरत होने का दर्द "


औरत होने का दर्द कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी माँ, कभी बीवी बनकर बलि की देवी बनती है
नौ महीने गर्भ के बीज को पल- पल खून से सींचती है
नव कोपल के फूटने के लम्बे इन्तजार को झेलती है
कौन आगे बढकर प्यार से माथे का पसीना पौंछता है ?
नवजीव के खिलने के असहनीय दर्द को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
माँ बनकर अपने जिगर के टुकड़े को हर दिन बढ़ते देखती है
कभी प्यार से तो, कभी डांट से पुचकारती है
खुद भूखा रहकर भी हर एक का पेट भरती है
कभी रात का बचा भात तो ,कभी दिन की बची रोटी रात में खाती है
इस बलिदान को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी पति, कभी बच्चों की दूरी को कम करते पिस जाती है
बच्चें लायक हो तो पिता का सीना गर्व से फूलता है
परीक्षा में कम निकले तो हर कोई माता को कोसता है
हम सफ़र के माथे की हर शिकन को तुरंत भांप लेती है
इस ममता को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी बेटी, कभी बहन बनकर सब सह जाती है
कभी बाप , कभी भाई के गुस्से में भी मुस्कुराती है
मायके में बचपन के आँगन का हर कर्ज चुकाती है
अपने हर गम, हर दुःख में भी सबका गम भुलाती है
इस दुलार को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी प्रेमिका बनकर, कभी दोस्ती के नाम पर छली जाती है
खुद गुस्सा होकर भी अपने प्रेमी को हर पल मनाती है
प्रेमी के मन की हर बात बिन कहे समझ जाती है
अपना हर आंसू उससे छुपा लेती है
कभी उसकी याद में तो, कभी बेरुखी में तड़पती है
इस जलन को कौन समझता है ? ,
हर कोई बस परखता है !
कभी बहू बनकर दहेज़ के नाम पर ताने सह जाती है
बेटी पैदा करने पर गुनाहगार ठहराई जाती है
कभी प्रसव तो , कभी गर्भ -पात की पीड़ा झेल जाती है
अपने ही अरमानों की अर्थी अपने कांधो पर उठाती है
इस संवेदना को कौन समझता है ? ,
हर कोई बस परखता है !

नोट - औरतो का सम्मान करे जैसे खुद के घर की बहूत बेटियों का सम्मान करते है वैसे ही दूसरो के घर वालो की बहू बेटियों का सम्मान करे


Tuesday, November 21, 2017

महिलाओं का सम्पत्ति का अधिकार



●ब्रिटिश राज और उससे आजादी के बाद समय-समय पर कानून बनाए गए हैं, जो महिलाओं को निजी संपत्ति का अधिकार तो देते हैं, लेकिन समाज में पुरुष प्रधान सोच के कारण कानून पंगु बना रहा।

●महिलाओं को निजी संपत्ति में हिस्सा देने की बहस काफी पुरानी है। हमारे देश में स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही यह बहस तेज हो गई थी। ब्रिटिश राज और उससे आजादी के बाद समय-समय पर कानून बनाए गए हैं, जो महिलाओं को निजी संपत्ति का अधिकार तो देते हैं, लेकिन समाज में पुरुष प्रधान सोच के कारण कानून पंगु बना रहा।
● वर्तमान समय में फैक्टरी, कार्यालय, खेत या घर- हर जगह महिलाएं समान रूप से श्रम कर रही हैं। 
●इसके बावजूद सामाजिक तौर पर निजी संपत्ति के बंटवारे के समय उनकी अनदेखी की जाती है। इस बारे में कानून महज दिखावा साबित होते हैं। 
●पूंजीवाद महिलाओं को समानता का हक तो देता है, लेकिन घर की चौहद्दी के अंदर। वह महिलाओं को श्रम के तौर पर बाजार और फैक्टरी तक लाता है, लेकिन उनके श्रम को सामाजिक श्रम का हिस्सा मानने से हिचकता है। 
●इसीलिए पूरी दुनिया में मानव श्रम की गणना की जाती है तो महिलाओं की अनदेखी की जाती है। इनमें महिलाओं द्वारा घरेलू काम या बच्चों की परवरिश के लिए किए जाने वाले श्रम की गणना नहीं होती है। 
●वर्तमान व्यवस्था भी किसी न किसी रूप में विभिन्न प्रचार माध्यमों से इस गैरबराबरी को बनाए रखना चाहती है।

●महिलाओं को जब संपत्ति में हिस्सा देने की बारी आई तो नीति-निर्माताओं ने महिला संपत्ति की उल्टी-सीधी व्याख्या करनी शुरू कर दी। 
●कभी विवाहित महिला द्वारा बचाए गए पैसे-जेवर आदि को स्त्री की निजी संपत्ति के रूप में माना गया, कभी शादी के बाद पति की संपत्ति को महिला की निजी संपत्ति मान लिया गया। लेकिन वक्त बदलने के साथ ही महिलाएं समान अधिकार को लेकर पहले से ज्यादा जागरूक होने लगी हैं, जिस कारण संपत्ति अधिकार कानून के व्यावहारिक पक्ष पर बहस तेज हुई है। 
●प्राचीन काल से मध्यकाल तक की सांस्कृतिक अवस्थाओं में महिलाओं की स्थिति ऐसी बनी कि वे संपत्ति और दूसरे अधिकारों के मामले में लगातार हाशिये पर चली गर्इं। लेकिन आधुनिक भारत में महिला अधिकार आंदोलनों का भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
● आजादी की लड़ाई के दौरान सभी प्रभावशाली नेताओं ने महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिए जाने की वकालत की। उस समय के नेताओं ने महसूस किया कि आर्थिक आजादी महिलाओं को संपत्ति में हक देने की लड़ाई से पूरी तरह से घुली-मिली है। 
●सैद्धांतिक तौर पर प्रकृति भी महिलाओं और पुरुषों में कोई भेद नहीं करती है और न ही प्रारंभिक समाज में ऐसा था। लेकिन विभिन्न सामाजिक संरचना, भौगौलिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से विश्व के अलग-अलग देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी अंतर है।
● कहीं महिलाओं को ज्यादा अधिकार हैं, तो कहीं कम। आज भी जनजातीय समाजों में महिलाओं को बराबरी के अधिकार हैं जो उनको संपत्ति रखने का भी अधिकार देते हैं।

●जबकि हमारे देश में व्यावहारिक रूप से महिलाओं को पुरुषों से कम अधिकार मिले हैं। इसमें भी संपत्ति रखने के मामले में महिलाओं की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। 
●हालत यह है कि अभी तक महिलाओं और पुरुषों की संपत्ति के अधिकार को लेकर कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। अगर हम बंगाल, गुजरात, बिहार या उत्तर प्रदेश में महिलाओं की संख्या और संपत्ति में उनके हिस्से की जानकारी प्राप्त करना चाहें तो भूसे में सूई ढूंढ़ने जैसा होगा। 
●अनेक संगठन महिलाओं के हक की आवाज तो उठाते हैं, लेकिन उनके आंदोलन और मुद्दे आपस में एक दूसरे से अलग-अलग हैं। 
●संयुक्त राष्ट्र की शाखा यूएन-वूमेन ने ‘नेशनल फाउंडेशन आॅफ इंडिया’ और ‘गर्ल्स काउंट’ के साथ मिल कर सोशल मीडिया पर काफी जोर-शोर से यह मुद्दा उठाया है, जिसे समर्थन मिलना शुरू हो गया है। 
●भारत जैसे देश में महिलाओं की सामाजिक हैसियत क्या रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। 
●जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक महिलाओं को पुरुषों की दया पर जिंदा रहना पड़ता है। अतार्किक और पितृसत्तात्मक सोच के बोझ तले स्त्रियों की पूरी जिंदगी गुजर जाती है। 
●यह तथ्य है कि संपत्ति सहित जमीन और मकान पर महिलाओं का मालिकाना हक होने से उनके साथ भेदभाव कम होते हैं।

●जिन देशों में महिलाएं आर्थिक रूप से ज्यादा सशक्त हैं, वहां भेदभाव में कमी आई है।
● हमारे देश में धर्म सुधार और महिला अधिकार आंदोलनों के कारण अंग्रेजों ने प्रॉपर्टी एक्ट 1937 तैयार किया, जिसमें हिंदू धर्म में विधवा महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया। 
●यह आधे-अधूरे ढंग से तैयार किया गया। इस कानून के अनुसार अगर पति ने अपनी कोई वसीयत नहीं तैयार की है तो पुत्र को विरासत में मिली संपत्ति की आधी हकदार विधवा भी होती थी। 
●1933 में कर्नाटक सरकार ने हिंदू कानून में महिला को संपत्ति में अधिकार के अधिनियम को भी जोड़ा। हालांकि महिलाओं को संपत्ति के कुछ सीमित अधिकार ही दिए गए, लेकिन यह पहली बार कानूनी तौर पर महिलाओं को संपत्ति में अधिकार देने की लिखित व्याख्या करता है।
● इस कानून के तहत वह संपत्ति को बेच, वसीयत या दान नहीं कर सकती थी। लेकिन वह स्त्री धन के तौर पर जुटाई गई संपत्ति को बेच सकती थी। इसमें भी जेवर, कीमती परिधान, प्राप्त उपहार आदि शामिल थे। 
●आजादी के बाद 1956 में हिंदू सेक्सेशन एक्ट की धारा-14 महिलाओं को संपत्ति में पूरा अधिकार देती है। चल और अचल संपत्ति पर भी।

●हिंदू उत्तराधिकार कानून 2005 में हुए बदलाव से अब बेटियों को भी संपत्ति में बेटों के बराबर संपत्ति का हकदार बना दिया गया है।
● इस नियम के तहत अब माता-पिता की संपत्ति की रजिस्ट्री, बेचना, पट्टे पर देना या ट्रांसफर करना बेटी के हस्ताक्षर के बिना संभव नहीं है। 
●इस मामले में या तो बेटी संपत्ति में से अपना हिस्सा लेती है या फिर यह घोषित करती है कि वह अपना हिस्सा अपने भाई को देना चाहती है। तभी संपत्ति की रजिस्ट्री या खरीद-बिक्री संभव हो सकती है।
● बेटी चाहे अविवाहित हो या विवाहित दोनों को ही समान रूप से अपने पिता की जमीन-जायदाद का हिस्सा लेने का हक प्रदान किया गया है।
●चूंकि देश में महिलाओं के संपत्ति अधिकार को लेकर बहुत कम चर्चा हुई है, जिस कारण से शोध और सर्वे का कार्य भी नाममात्र का ही है। 
●2013 में दिसंबर में इंटरनेशनल लैंड कोलिशन, रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट और यूएन वूमेन ने हिंदू सेक्सेशन सुधार अधिनियम 2005 को लागू करने के बाद की स्थिति पर अपनी रिपोर्ट पेश की।
● इसमें आंध्र प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश जैसे कृषि आधारित राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में जमीन हस्तांतरण को लेकर अध्ययन किया गया। 
●ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जमीन संपत्ति का सबसे बड़ा माध्यम है।
गांवों में परिवार या व्यक्ति की हैसियत जमीन के आधार पर ही आंकी जाती है। रिपोर्ट बताती है कि पुरुष प्रधान समाज में कानून को लागू करने वाला हर वर्ग इससे अनजान है।
● महिलाएं खुद भी पुरुष प्रधान सोच से ग्रस्त हैं। वे जमीन अपने बेटों को तो देती हैं, लेकिन बेटियों को देने से हिचकती हैं। दरअसल, महिलाओं का मानना होेता है कि बेटी पराए घर चली जाएगी, ऐसे में संपत्ति बंट जाने से सामाजिक संबंध भी छिन्न-भिन्न हो जाएंगे। 
●यहां तक कि प्रशासनिक और न्यायपालिका में भी हर स्तर पर महिला को संपत्ति का अधिकार देने के कानून या नियम के मामले में उदासीनता बरती जाती है। इस रिपोर्ट को भारत सरकार को सौंप दिया गया, ताकि वह महिला संपत्ति कानून को प्रभावी तरीके से लागू करने की कार्ययोजना बना सके। 
★इसमें निष्कर्ष निकाला गया कि संपत्ति में अपना हक लेने के लिए महिलाओं को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। साथ ही महिला अधिकार के सवालों को संपत्ति अधिकार के मुद्दे से जोड़ना होगा।

Thursday, November 16, 2017

मैं तुम्हें भ्रूण से इंसान बनाती हूँ !!

मर्द को औरत का ताकत का अहसास दिलाती यह कविता...💐
किसने लिखी है पता नहीं मुझे लेकिन एक मर्द को दर्द का एहसास कराने वाली इस लेखनी को सलाम है मेरा !!
एक बार पढ़िए इस pic पे इससे बेहतर पोस्ट में कभी नहीं कर सकता.....

आज मेरी माहवारी कादूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियांदर्द से खिंची हुई हैं।इस दर्द से उठती रूलाईजबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,सारे लोगों की जमी हुई नजरों के बीच,दुकानदार ने काली थैली में लपेटमुझे ‘वो’ चीज लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन हीदर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर तलक भीबैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने केइस पांच दिवसीय झंझट में,छुट्टी ले के भी तोलेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,बार-बार मुस्कुराता है,बात करता है दूसरों से,पर घुमा-फिरा के मुझे हीनिशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता हैै,कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का देते हुए सुझाव,मेरे पच्चीस दिनों का लगातारओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,मेरे चेहरे के पीलेपन, थकानऔर शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,और मेरी स्थिति शायद उसेव्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,कहता है, ‘‘काम को कर लेना,दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’केबिन के बाहर जाते मेरे मन में तेजी से असहजता की एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’उभर आने की।यहां राहत थी अस्सी रुपये में खरीदे आठ पैड से‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।मैं असहज थी क्योंकि मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी थीं,और कानों में हल्की-सीखिलखिलाहट पड़ी थी‘‘इन औरतों का बराबरी का झंडा नहीं झुकता है जबकि हर महीने अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनकेये ‘नाज-नखरे’ सह लेते हैंऔर हंसकर इन औरतों कोबराबरी करने के मौके देते हैं।’’ओ पुरुषो!मैं क्या करूंतुम्हारी इस सोच पर,कैसे हैरानी ना जताऊं?और ना ही समझ पाती हूंकि कैसे तुम्हें समझाऊं!मैं आज जो रक्त-मांससेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,तुम्हारे वजूद के लिए,‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।और इसी माहवारी के दर्द सेमैं वो अभ्यास पाती हूं,जब अपनी जान पर खेलतुम्हें दुनिया में लाती हूं।इसलिए अरे ओ मदो!ना हंसो मुझ पर कि जब मैंइस दर्द से छटपटाती हूं,क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं,,,,,,,

'सुंदर, घरेलू और सुशील' दूल्हा क्यों नहीं ढूंढते?

क्या आप खाना बना सकती हैं? आप किस तरह के कपड़े पहनती हैं? मॉडर्न, ट्रेडिशनल या दोनों? शादी के बाद नौकरी करेंगी या नहीं?
ये सवाल मुझसे लड़के के माता-पिता या घरवालों ने नहीं पूछा. ये सवाल पूछती हैं प्यार और शादी कराने का दावा करने वाली मैट्रिमोनियल वेबसाइटें.
पिछले कुछ दिनों से घरवाले मुझे शादी कराने वाली इन वेबसाइटों पर अकाउंट बनाने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे थे.
इसे टालने के लिए सभी पैंतरे आज़माने के बाद उकताकर मैंने अकाउंट बनाने के लिए हां कही. सोचा, इसी बहाने बोरिंग ज़िंदगी में थोड़ा रोमांच आएगा.
पहली वेबसाइट पर मुस्कुराते जोड़े नज़र आए. साथ ही बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- 'love is looking for you, be found'. यानी हिंदी के आसान शब्दों में कहें तो प्यार आपको ढूंढ रहा है, उसकी रडार में तो आइए.


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यानी मैं प्यार के रास्ते पर बढ़ रही थी. इसके लिए मुझे अपने धर्म, जाति, गोत्र, उम्र, शक्ल-सूरत, पढ़ाई-लिखाई और नौकरी की जानकारी देनी था.

सवालों की बौछार

खाना वेज खाती हूं या नॉनवेज, दारू-सिगरेट पीती हूं या नहीं, कपड़े मॉडर्न पहनती हूं या ट्रेडिशनल... ऐसी तमाम सवालों के जवाब देने थे.
फिर सवाल आया, क्या आप खाना बना सकती हैं? जवाब में 'नहीं' टिक करके आगे बढ़ी.
अगला सवाल था, शादी के बाद नौकरी करना चाहेंगी?

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इतना सब बताने के बाद ये बताना था कि मैं किस तरह की लड़की हूं, लाइफ़ में मेरा क्या प्लान है...वगैरह-वगैरह.
मैं टाइप करने लगी- मुझे जेंडर मुद्दों में दिलचस्पी है...फिर याद आया ये रेज़्यूमे नहीं है. आख़िरकार जैसे-तैसे अकाउंट बन गया.
अब लड़कों के अकाउंट खंगालने की बारी थी. किसी ने नहीं बताया था कि वो खाना बना सकते हैं या नहीं.
किसी ने नहीं बताया था कि वो शादी के बाद ऑफ़िस का काम करना चाहेंगे या घर का. वो कौन से कपड़े पहनते हैं, इसका भी कोई ज़िक्र नहीं किया था.

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लड़कों से ये सवाल नहीं

थोड़ी और पड़ताल करने पर पता चला कि लड़कों से ये सवाल पूछे ही नहीं गए थे.
बदलते वक़्त के साथ कदम मिलाकर चलने का दावा करने वाली आधुनिक वेबसाइट पर पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग चश्मों से देखा जा रहा था.
इसके बाद शादी अरेंज करने वाली तीन-चार और वेबसाइटों पर नज़र दौड़ाई. सबमें तकरीबन एक से ही सवाल पूछे गए थे.
एक मैट्रिमोनियल साइट पर अगर आप दुल्हन ढूंढते हैं तो तो डिफ़ॉल्ट एज 20-25 साल दिखेगी और अगर दूल्हा ढूंढ रहे हैं तो डिफ़ॉल्ट एज '24-29'.

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यानी लड़की की उम्र लड़के से कम होनी चाहिए, चाहे-अनचाहे इस धारणा को पुख़्ता किया जा रहा है.
दूसरी वेबसाइट पर अगर आप ये बताते हैं कि अकाउंट आपने ख़ुद बनाया है तो आपको कम लोग अप्रोच करेंगे. ऐसा वेबसाइट पर आने वाला नोटिफ़िकेशन कहता है.
मतलब आज भी हम अपने लिए जीवनसाथी ढूंढने वालों को शक़ की निगाह से देखते हैं. अगर किसी को शादी करनी है तो उसे अपने माता-पिता या भाई-बहन से अकाउंट बनाने के लिए कहना चाहिए.

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फ़र्क बस इतना ही नहीं था. लड़के और लड़कियों की तस्वीरों में भी अंतर साफ़ देखा जा सकता है.

सेल्फ़ी में फर्क



लड़के जहां सेल्फ़ी और पूल में नहाने वाली तस्वीरें पोस्ट करते हैं वहीं ज्यादातर लड़कियां टिपिकल दुल्हन वाली भावभंगिमा में नज़र आती हैं.
अख़बारों में छपे 'सुंदर, गोरी, पतली और घरेलू बहू' की मांग करने वाले विज्ञापन खूब देखे थे लेकिन इंटरनेट के ज़माने में मैट्रिमोनियल वेबसाइटों का यह रवैया हैरान करने वाला था.
अख़बारों में शायद ही कभी किसी ने 'सुंदर, घरेलू और सुशील' वर की मांग करने वाला विज्ञापन देखा हो. शायद ही कभी लड़कों को ख़ास तरह के कपड़ों में फ़ोटो भेजने को कहा गया हो.

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ख़ैर, इन्हें तो पुरानी बातें कहकर जानें भी दें मगर इंटरनेट के ज़माने में मैट्रिमोनियल वेबसाइटों के यह रवैये पर सवाल कैसे न उठाएं?
ख़ासकर जब ऑनलाइन मैचमेकिंग इंडस्ट्री का मार्केट हज़ारों करोड़ रुपये का हो.

अरबों का कारोबार

एसोचैम के आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच सालों में मैट्रिमोनियल वेबसाइटों का बाज़ार तेजी से बढ़ा है और अब यह तकरीबन 15,000 करोड़ तक पहुंच गया है.
मैंने वेबसाइटों पर दिए नंबरों पर फ़ोन करने यह जानने की कोशिश की कि लड़कों और लड़कियों से पूछे जाने वाले सवालों में ये अंतर क्यों है.
ज्यादातर जगहों पर फ़ोन उठाने वालों ने व्यस्त होने की बात कहकर सवाल टाल दिए. मेरे भेजे ईमेल्स का भी कोई जवाब नहीं आया.

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काफी देर बाद एक वेबसाइट के ऑफ़िस में आलोक नाम के कस्टमर केयर रिप्रजेंटेटिव ने फ़ोन उठाया.
उन्होंने कहा,"हमें अपने सवाल लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से तय करने होते हैं. लगभग सभी लोग ऐसी लड़की चाहते हैं जो नौकरी के साथ-साथ घर भी संभाल सके.''
मेरी एक दोस्त से सैंडल उतारकर खड़े होने को कहा गया था ताकि भावी ससुराल वालों को उसकी लंबाई का सही अंदाज़ा लग सके.
मैचमेकिंग साइटों का तौर-तरीका मुझे इससे ज़्यादा अलग नहीं लगा.

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मैट्रिमोनियल वेबसाइटों पर खूब पढ़े-लिखे और ऊंचे पदों पर काम करने वाले युवा रजिस्टर करते हैं. एनआरआई माता-पिता अपने बच्चों के लिए जीवनसाथी तलाशने यहां आते हैं.
ऐसी स्थिति में भी अगर कोई इस दोहरे रवैये पर आपत्ति नहीं कर रहा है तो निश्चित तौर पर परेशान करने वाली बात है.

Monday, November 13, 2017

क्या करोगी जॉब करके, किसी चीज़ की कमी है क्या?

मामा के घर गया था। बातों बातों में नौकरीपेशा लड़कियों का मुद्दा उठा। मामी ने कुछ शिकायती लहज़े में, कुछ तारीफ़ के लहजे में बताया कि मामा हमेशा कहते हैं -अगर लड़कियों को आगे जाकर करियर नहीं बनाना, नौकरी नहीं करनी तो टेक्निकल कोर्स में हाथ नहीं डालना चाहिए। वैसे भी अच्छे टेक्निकल इंस्टीट्यूट्स में सीट्स की मारा मारी होती है। ऐसे में ऐसी डिग्री ले के घर बैठना सिर्फ अपनी ही नहीं, उस एक ज़िन्दगी से भी खिलवाड़ है जो उस जगह को आपसे अधिक डिज़र्व करता था और उस का बेहतर इस्तेमाल कर पाता।

ज़्यादातर लड़कियां हायर एजुकेशन में करियर बनाने जाती हैं या जा रही हैं, इसमें मुझे शक है। आज भी लड़कियों को अपनी पसंद के कॉलेज चुनने का हक नहीं है। हज़ार बहाने बनाये जाते हैं। अकेले कैसे रहोगी, कहाँ रहोगी, अंजान शहर है, कितना अनसेफ है, सब लोग क्या कहेंगे, कुछ ऊपर नीचे हो गया तो। पढ़कर करना भी क्या है, नौकरी तो करोगी नहीं। इन सबसे लड़ झगड़ कर लड़की अगर पढ़ भी लेती है तो सुनाया जाता है – अब एक अच्छा सा लड़का खोज कर तुझे उसके हवाले करूँ और मोह माया से मुक्त हो जाऊं।

इसके बाद वही सब, बच्चे पैदा करना, घर परिवार, सास-ससुर, रिश्तेदार। करियर की बात पर पति सीधा कहते है – क्या करोगी जॉब कर के, कोई कमी है क्या? ये बात इतनी धौंस के साथ कही जाती है कि ज़्यादातर लड़कियां कह नहीं पाती कि हाँ, कमी है, अपनी काबिलियत को इस्तेमाल करने की। एमबीए, एमसीए, बीटेक करने के बाद दिन रात दूध गर्म करने और दाल में नमक बराबर रखने की फ्रस्ट्रेशन कम करने की ज़रूरत है। झाड़ू की सींक हेयर पिन न बन जाये इस डर को दूर करने की ज़रूरत है। कहना चाहती है कि मैं भी तुम्हारे जितनी पढ़ी लिखी हूँ, तुमसे ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं, लेकिन मैं घर के काम कर रही हूँ, और तुम धौंस से दुनिया चला रहे हो। लेकिन दब जाती है आवाज़। क्योंकि पापा-मम्मी ने कहा था, अब तो वही घर तेरा है।

आजकल लड़कियां टेक्निकल कोर्स में भेजी तो जा रही हैं, लेकिन ज़्यादातर इसलिए कि पढ़ी लिखी लड़की को कमाऊ लड़का मिलेगा और दहेज़ कम लगेगा। दहेज़ तय करते वक़्त बेहद सॉलिड तर्क दिया जाता है, अरे लड़की एमसीए है। भगवान न करे कभी बुरा वक़्त आये, लेकिन आड़े वक़्त में घर में मदद करेगी। बड़ा मज़ेदार लगता है जब बाप अपनी बेटी को खुद इस तरह के तर्क देकर सभ्य तरीके से बेचता है। अपने प्रोडक्ट की खूबियां गिना कर।

इससे भी ज़्यादा मज़ेदार लगता है जब ये लड़कियां बड़ी हो जाती हैं, दो चार किशोरवय बच्चों की माँ बन जाती है, प्रौढ़ हो जाती है, थकने लगती हैं। उस वक़्त इन्हें घर में खाली देख कर पति कहता है – तुम खुद को एंगेज क्यों नहीं रखती। इतनी पढ़ी लिखी हो, टैलेंटेड हो। कुछ करो, कोई नौकरी देखो। और पत्नी सोचती है – व्हॉट द एफ़ इज़ दिस, उम्र गुज़र गयी और जब आराम करने का मन होता है तब काम करूँ, वो भी सिर्फ इसलिए कि तुम कहते हो। तुमने कहा तो नहीं किया , अब तुम कहते हो तो कर लूं। हिपोक्रेट लिबरल्स! बस कहती नहीं है-पापा की बात याद आ जाती है।

Wednesday, November 1, 2017

खून का रंग लाल ही होता है...समझ तो आया!

थैंक गॉड ये देर से ही सही, मगर समझ तो आया कि पीरियड का खून भी लाल ही होता है. उम्मीद जगी है कि दूसरी कंपनियां भी ऐसा साहस करेंगी और अपनी हिचकिचाहट तोड़ेंगी.
संध्या द्विवेदी

माहवारी न हुई बीमारी हो गई. वह भी छूत की बीमारी. बचपन में सुना था टीबी छूत की बीमारी है. बड़े होते-होते यकीन हो गया कि नहीं ये छूने से नहीं होती और न ही टी.बी. के रोगी के साथ रहने से होती है. फिर एक और बीमारी आई एड्स, हाहाकार मच गया. लेकिन तब तक दिमाग खुद भी चौकन्ना रहने का आदी हो चुका था. सो जानकारी जुटाई, जानकारों से खूब सवाल पूछे और यकीन हो गया कि ये बीमारी हाथ मिलाने से नहीं होती.
खून का रंग लाल ही होता है... ब्लू नहीं
इन सबके बारे में जागरुकता फैलाने में अहम भूमिका निभाई विज्ञान ने और कई विज्ञापनों ने. लेकिन ‘उन दिनों के बारे में’ तो बस खुसर-फुसर ही होती रही. और तो और बेहद आधुनिक माध्यम टेलीविजन पर भी प्रतीकात्मक विज्ञापन ही बने. जैसे एक विज्ञापन जिसमें अंगूठी एक स्विमिंग पूल में गिर जाती है. अब अंगूठी जिसकी थी वो लड़की पीरियड्स की वजह से स्वीमिंग पूल में कैसे जाए. लेकिन उसने परेशान होने के बजाए बड़े ही स्टाइल और कॉन्फिडेंस से 'डोंट वरी' लिखा हुआ एक पैकेट निकाला! तब मैंने सोचा कि आखिर सैनिटरी पैड के विज्ञापन में स्विमिंग पूल का क्या काम ?

लेकिन फिर खुद ही मेरे मन ने कहा, बेशर्म लड़की पीरियड का खून कैसे दिखाया जा सकता है !
खैर एक और विज्ञापन आया जिसमें पैड की गुणवत्ता और क्षमता के प्रदर्शन के लिए नीले रंग के लिक्विड का इस्तेमाल किया गया. कई प्रश्नचिह्न दिमाग में तैरने लगे कि खून दिखाने के लिए नीला रंग क्यों?

यू.के. की बॉडीफार्म नाम की कंपनी ने इस धारणा को तोड़ने का काम किया है. यकीन मानिए इस विज्ञापन को कई बार देखा. न जाने क्यों दिल को अजीब सा सुकून मिला. मन ही मन व्यंग्य भी किया, चलो कम से कम किसी को तो समझ आया कि पीरियड के खून का रंग लाल होता है. पहली बार किसी सैनिटरी पैड के विज्ञापन में खून का रंग लाल ही दिखा. बिना किसी हिचकिचाहट के इस कंपनी ने पैड पर लेटी एक महिला के टांगों के बीच से निकलते लाल रंग के खून को दिखाया.
हालांकि सोशल मीडिया पर पीरियड्स को लेकर खुलकर बात हुई है. हैप्पी टू ब्लीड जैसा आंदोलन चला. टोरंटो की एक ब्लॉगर रूपी कौरने तो सीरीज में फोटो ही पोस्ट कर दिए. इस पर खूब हंगामा मचा. यहां तक कि इंस्टाग्राम ने ट्राउजर पर आए खून के धब्बे वाली फोटो को भी हटा लिया. बाद में ये कहते हुए माफी मांगी कि ये फोटो गलती से हट गई थी.
सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुए एक वीडियो में दौड़ती हुई लड़कियां, तैरती हुई लड़कियां, मुक्केबाजी करती लड़कियां दिखाई गईं. हाथ से, पैर से, माथे से खून निकलता दिखाया गया. और लास्ट में एक संदेश दिया गया, no blood should hold us back. 
थैंक गॉड ये देर से ही सही, मगर समझ तो आया कि पीरियड का खून भी लाल ही होता है. उम्मीद जगी है कि दूसरी कंपनियां भी ऐसा साहस करेंगी और अपनी हिचकिचाहट तोड़ेंगी. इस कंपनी ने 10,017 महिला और पुरुषों पर सर्वे भी किया. जिसमें पाया कि इनमें से 74 फीसदी लोग विज्ञापन में पीरियड्स को उसके मौलिक रूप में ही देखना चाहते हैं... यानी जैसे दूसरे विज्ञापन सीधे मुद्दे पर आते हैं, वैसे ही यहां पर भी बात पीरियड्स की ही हो. कम से कम खून का रंग तो लाल ही दिखे.

अंदर तक सन्न कर देने वाली मैरिटल रेप्स की सच्ची कहानियां

इति शरण:

बात तब की है जब मैं एक सामुदायिक रेडियो “गुडगांव की आवाज़” में सेक्शुअल हेल्थ पर काम कर रही थी। इस दौरान सेक्शुअल हेल्थ से सम्बंधित कई विषयों पर काम करने का मौका मिला, जिसमें मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) के गंभीर विषय से भी हमारा सामना हुआ। महिलाओं से बात करने पर पता चला कि बड़ी संख्या में महिलाएं इस तरह के बलात्कार का शिकार हो रही हैं, जिसके खिलाफ वे आवाज़ भी नहीं उठा पाती।

इस प्रोजेक्ट के सिलसिले में मेरी कई औरतों से बातचीत हुई। मगर एक दिन एक ऐसी महिला ने मुझे अपनी कहानी बताई, जिससे मैं अक्सर मिला करती थी, लेकिन कभी पता ही नहीं चला कि वह भी मैरिटल रेप की शिकार है। उसकी शादी 18 साल की उम्र में ही कर दी गई थी। शादी की पहली रात से ही वह अपने पति की ज़बरदस्ती सहने को मजबूर रही थी। उस महिला ने उस दिन विस्तार से मुझे अपनी कहानी बताई।

“मुझे नहीं पता था कि शादी के बाद क्या होता है। कच्ची उम्र में ही मेरी शादी तो तय कर दी गई, मगर शादी के बाद की चीज़ों के बारे में मुझे कुछ नहीं बताया गया। शादी की पहली रात मेरे पति जैसे मुझपर चढ़ ही गए थे, मेरे लिए सब बहुत डरावना था। मुझे दर्द भी हो रहा था और बहुत शर्म भी आ रही थी। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई मेरे शरीर के साथ ऐसा कुछ करेगा। मेरे पति तब तक नहीं रुके जब तक उन्हें नींद नहीं आ गई। सुबह होते ही मैंने अपनी माँ को फ़ोन लगाया और रात की बात बताते हुए रोने लगी तो मेरी माँ ने कहा कि पागल है क्या तू, वह तेरे पति हैं, इसे अपना पत्नीधर्म समझ कर निभा ले।”

उस औरत ने बताया कि धीरे-धीरे वह इसकी आदी हो गई, मासिक धर्म के दिनों में भी उसका पति उसे नहीं छोड़ता था। उसका पूरा बिस्तर खून से सन जाता था और कुछ दिन बाद वह गर्भवती हो गई। उसे मायके भेज दिया गया, वह खुश थी कि उसके साथ ऐसा कुछ नहीं हो रहा था। बच्चा होने के बाद उसका शरीर बहुत कमज़ोर हो गया। इस कारण डॉक्टर ने कुछ दिनों तक उन्हें संबंध बनाने के लिए मना किया हुआ था। मगर उसका पति मानने वालो में से नहीं था यहां तक कि उसे प्रोटेक्शन लेना भी मंजूर नहीं था। नतीजतन एक महीने बाद ही वह फिर से गर्भवती हो गई।

शरीर से कमज़ोर होने के कारण 2 महीने में ही उसका बच्चा गिर गया। अपनी कहानी बताने के बाद उस महिला ने कहा था “अपने पति से मैं भी प्यार करना चाहती थी, मगर कभी कर नहीं पाई।” इस तरह की कहानी हमारे समाज में हर दूसरे घर में मिल जाएंगी, जहां औरतें अपने पति द्वारा ही बलात्कार की शिकार हो रही।

वैसे इसके लिए ज़िम्मेदार अकेले उस एक पुरुष को नहीं ठहराया जा सकता है, बल्कि इसका ज़िम्मेदार हमारा वह समाज है, जहां सेक्स को पुरुषों की मर्दानगी से जोड़कर देखा जाता है। मुझे याद हैं एक औरत ने अपनी कहानी बताते हुए कहा था-

“मैडम मेरे पति बहुत अच्छे हैं। कभी भी मेरी इजाज़त के बिना संबंध नहीं बनाते। यहां तक कि पहली रात भी मेरे मना करने के बाद वह कुछ नहीं बोले। मगर उन्होंने मुझे कहा था कि किसी और को मत बताना कि हमारे बीच कुछ भी नहीं हुआ, वरना लोग मेरी मर्दानगी पर ताना देंगे। इस घटना को हम एक ऐसे उदाहरण के रूप में देख सकते हैं, जब मर्दानगी के नाम पर एक पुरुष को जबरन संबंध बनाने के लिए ज़ोर दिया जाता है।”

इसके परिणामस्वरुप स्त्रियों के मन में यौन संबंध के प्रति नफरत घर कर लेती है। प्यार का यह अनमोल रूप हिंसा में तब्दील हो जाता है। जबकि यौन संबंध पुरुष और स्त्री दोनों की इच्छा और ज़रूरत है। पुरुषों की शारीरिक बनावट ऐसी होती है कि संबंध बनाने से उनकी थकान दूर होती है, जबकि औरतों को इसमें कुछ हद तक थकान महसूस होती है। वैसे भी हमारे समाज में सामान्यतः घर की सारी ज़िम्मेदारी औरतों के सर पर ही थोप दी जाती है, दिन भर के काम से थकने के बाद हर दिन उसका संबंध बनाने का मन नहीं होता।

करीब 50 साल की एक महिला ने अपने पति के बार में बताते हुए कहा था, “वो आज मुझे अगर अपने पास बैठने के लिए बुलाते भी हैं तो उनके पास जाकर बैठने का मन नहीं करता। मन भी कैसे करे, शादी होते ही घर की सारी ज़िम्मेदारी मेरे सर पर थोप दी गई। दिन भर काम करके शरीर बिल्कुल जवाब दे देता था। उम्र भी बहुत कम थी मेरी, मगर काम के बाद जब आराम करने का मन होता तो पति घर आते ही बिस्तर में चलने के लिए बोलते। अगर मना करो तो फिर घर में बवाल कि मेरी इससे थकान दूर होती है और वैसे भी तू तो दिन भर घर में ही रहती है।अब किस बात की पत्नी जो पति का थकान भी दूर न करे। उस औरत का कहना था कि संबंध बनाना मेरे लिए कोई प्यार नहीं रहा बल्कि सज़ा थी मेरे लिए। उनके लिए तो मैं बस एक ज़रूरत पूरी करने वाली मशीन थी। उसके घर का सारा काम करने वाली और दूसरा संबंध बनाकर उसकी थकान दूर करने वाली औरत।

इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत हम लोग एक रेडियो नाटक भी बनाया करते थे, जिसमें लाइव डॉक्टर के जुड़ने का एक सेशन हुआ करता था। डॉक्टर उस सेशन में अक्सर लोगों को यह सलाह दिया करते थे कि आप पत्नी के पास सिर्फ संबंध बनाने मत जाया करो, बल्कि अपने प्यार का इज़हार दूसरी तरह से भी करने की कोशिश करो। देखना आपकी पत्नी आपसे कितनी खुश रहा करेगी। डॉक्टर से बात करने के लिए हमारे स्टेशन में काफी कॉल आया करते थे। कई पुरुषों का कहना था कि हमें बार-बार अपनी पत्नी के साथ संबंध बनाने का मन होता है। कुछ पुरुषों ने बताया कि जब वो ऑफिस में होते हैं तब भी मन होता है कि जल्दी से घर जाकर पत्नी के साथ यौन संबंध बनाएं। ऐसा नहीं कर पाने पर उन्हें बहुत बेचैनी होती है।

डॉक्टरों का कहना हैं कि यह एक तरह की मानसिक स्थिति भी है, किसी चीज़ की लत लग जाना या उसके बारे में दिन रात सोचने पर हर बार आपका दिमाग उसी ओर जाता है। खासकर युवाओं के साथ ऐसा कई बार होता है। डॉक्टरों का कहना है कि पहले तो उन पुरुषों को अपना ध्यान कहीं और लगाने की कोशिश करनी चाहिये। दूसरा कई बार पुरुषों के उत्तेजित हो जाने पर उनका वीर्य भी निकल आता है, जिसके बाद उन्हें सेक्स करने की ज़रूरत महसूस होती है। अगर उस वक़्त वह पुरुष अपने साथी के साथ नहीं हैं या उसकी साथी की रज़ामंदी नहीं हैं तो वह हस्तमैथुन करके भी अपनी उत्तेजना शांत कर सकता है।

हांलाकि हमारे समाज में हस्तमैथुन को गलत नज़रिये से देखा जाता है। जबकि इसमें कोई बुराई नहीं है। यह एक सामान्य सी बात है। डॉक्टर भी इसे गलत नहीं मानते।

कई लोगों का यह भी मानना होता है कि हस्तमैथुन करने से कमज़ोरी या अन्य कोई बीमारी होती है, मगर यह सब गलत धारणाएं हैं। यह चिंता का विषय तब बनता है जब रोज़मर्रा के काम में रूकावट बनने लगे या तनावमुक्त होने का यही एकमात्र साधन बन जाए।

जबरन संबंध बनाने का खामियाज़ा कई बार खुद पुरुषों को भी सहना पड़ता है। पुरुषों के ज़बरदस्ती करने पर कई बार औरतें संबंध बनाने के नाम से ही नफरत करने लगती है। वे घर के कामों में खुद को इतना व्यस्त कर लेती हैं कि पति की तरफ कभी ध्यान भी नहीं जाता। परिणामस्वरूप जल्द ही दोनों के बीच यौन संबंध बनना बंद हो जाता है और पुरुष चाहकर भी इससे वंचित रह जाते हैं। इसलिए इस प्यार को बरक़रार रखने के लिए यौन संबंध को हिंसा नहीं बल्कि प्यार का रूप देना ज़रूरी है।

Friday, October 6, 2017

Neha Kakkar | Rashke Qamar LIVE | Riya | SaReGaMaPa Lil Champs



Na Jaane Kyon Tera Milkar Bichhadna by Attaullah Khan with Lyrics - Popular Sad Song








इंटर में सेकेंड डिवीजन, दिल्ली गये, एक कमरे में तैयारी की और साथ बने IAS


PATNA : ...
कोई इंसान चाहे कितना भी साधारण क्यों न हो, उसके अंदर भी कई खूबियां छिपी होती हैं। जो इन खूबियों को पहचान कर जागृत कर लेता है, सफलता उसके कदम चूमने लगती है। ये कहानी है बिहार के दो ऐसे दोस्तों की जो फोर्थ ग्रेड नौकरी की परीक्षा भी पास नहीं कर कर सके थे लेकिन कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि बाद में IAS बन गये।
सेकेंड डिवीजन से इंटर पास करने के बाद आम तौर पर कोई छात्र बड़े सपने नहीं देखता। उसे कोई साधारण नौकरी भी मिल जाए तो बहुत बड़ी बात समझता है। निराशा के इस दौर में अगर कोई हिम्मत दिला दे तो बात बदलते देर नहीं लगती। खगड़िया के सावन कुमार और मधेपुरा के आदित्य कुमार ऐसे छात्र रहे हैं बिहार के लाखों विद्यार्थियों के लिए प्रेरणाश्रोत हैं। इनकी कामयाबी की कहानी बेमिसाल है।

सावन कुमार ने खगड़िया जिले के एक गांव से मैट्रिक की परीक्षा 65 फीसदी अंकों के साथ पास की थी। इंटर में उनका रिजल्ट खराब हो गया। इंटर में सावन को केवल 50 फीसदी अंक ही मिले। वे रेलवे के ग्रुप डी (फोर्थ ग्रेड) की परीक्षा की तैयारी करने लगे। सावन के पिता बस कंडक्टर थे। घर की माली हालत खराब थी। सावन किसी तरह कोई छोटी सरकारी नौकरी भी हासिल करना चाहते ताकि घर चलाने में वे पिता की मदद कर सकें। इंटर के रिजल्ट को देख कर वे कोई बड़ा सपना नहीं देखते थे।
प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के दौरान सावन की दोस्ती मधेपुरा के आदित्य कुमार के साथ हुई। आदित्य का रिजल्ट भी औसत ही था। उनके पिता छोटे किसान थे और बुनकरी का काम बी करते थे। वे भी रेलवे की ग्रुप डी की परीक्षा की तौयारी कर रहे थे। जब इतनी छोटी नौकरी की परीक्षा में भी दोनों पास नहीं कर पाये तो वे निराश हो गये। 2010 की बात है। एक दिन आदित्य ने सावन को दिल्ली चलने के लिए कहा।

दिल्ली जाकर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी की योजना बनायी। सावन इस प्रस्ताव से कोई बहुत उत्साहित नहीं हुए लेकिन वे आदित्य के साथ दिल्ली जाने के लिए राजी हो गये।
सावन और आदित्य दिल्ली पहुंचे। दोनों एक कमरे में रह कतर तैयारी करने लगे। दोनों 2011 की UPSC परीक्षा में शामिल हुए। लेकिन दोनों PT पास नहीं कर सके। अब तो निराश चरम पर पहुंच गयी । घर की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि वे बहुत दिनों तक दिल्ली में जमे रहते। आदित्य UPSC की परीक्षा में अंग्रेजी में दो बार फेल हो चुके थे। लेकिन इस मुश्किल वक्त में आदित्य कुमार ने गजब की हिम्मत दिखायी।

उन्होंने सावन को कहा कि अब हर हाल में UPSC करना है। जब कि सावन फिर से फोर्थ ग्रेड की नौकरी खोजने के बारे में सोचने लगे थे।
सावन और आदित्य ने मैथिली विषय के साथ UPSC की तैयारी नये सिरे से शुरू की। 2015 में आखिर वह चमत्कार हो ही गया जिसके लिए सावन और आदित्य पिछले चार साल से पसीना बहा रहे थे। दोनों का चयन IAS के लिए हो गया। अब किस्मत देखिए जिन दो छात्रों को रेलवे में खलासी की नौकरी भी नहीं मिली वे IAS के प्रतिष्ठित पद पर पहुंच गये।



Saturday, September 30, 2017

नारी को पूजने का सबसे अच्छा तरीका है, ये सुनिश्चित करना कि-


किसी दुर्गा का गर्भपात न हो,
कोई सरस्वती स्कूल जाने से वंचित न रह जाए,
किसी लक्ष्मी को आर्थिक विपन्नता से न गुजरना पड़े,
किसी काली का उसके रंग के कारण उपहास न हो,
कोई सीता पति द्वारा त्यागी न जाए,
कहीं पार्वती दहेज के लिए प्रताड़ित न हो,

दरअसल ये त्योहार इसीलिए मनाए जाते हैं कि हमें पता रहे कि हमारे अंदर का रावण एक बार में नहीं मर सकता। इसे मारते रहना पड़ता है...निरंतर...प्रति दिन...प्रति वर्ष।

रावण मरे न मरे, हमारे भीतर का राम नहीं मरना चाहिए।