मेरी लिखी बातों को हर कोई समझ नही सकता,क्योंकि मैं अहसास लिखती हूँ,और लोग अल्फ़ाज पढ़ते हैं..! अनुश्री__________________________________________A6
Tuesday, February 13, 2018
Friday, February 9, 2018
आज भी कई महिलाएं साड़ी को जांघों में दबाकर रोकती हैं पीरियड्स का खून
सैनेटरी नैपकिन पर टैक्स का लगातार विरोध देखने को मिल रहा है। कुछ समय पहले सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ‘लहू का लगान’ नाम से एक कैंपन भी चला। कारण साफ है, जहां हमारी सरकार को सैनेटरी नैपकीन की सस्ती उपलब्धता के लिए योजना बनाने की ज़रूरत है, वहां ठीक इसके उलट हमारी सरकार आम लोगों को उसकी पहुंच से दूर करने की साजिश रचती हुई दिख रही।
बहरहाल, आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं पीरिड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। इसके दो कारण है, पहला सैनेटरी नैपकिन खरीदने की असमर्थता, दूसरा जानकारी की कमी।
बिहार सरकार के पूर्व प्रोजेक्ट “महिला सामख्या” की राज्य कार्यक्रम निदेशक रह चुकी कीर्ति का कहना है कि बिहार के कई ग्रामीण इलाकों में जब किशोरी लड़कियों और महिलाओं को सैनेटरी नैपकीन दिखाया गया तो उनका जवाब था कि यह तो डस्टर है। उन्होंने उसके पहले कभी सैनेटरी नैपकीन देखा तक नहीं था। कीर्ति का कहना है कि महिलाओं में पीरियड्स को लेकर जागरूकता की भारी कमी है, जिसका खामियाज़ा उन्हें इंफेक्शन के रूप में सहना पड़ता है।
लेकिन, इससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली बात तो ये है कि कई इलाकों में महिलाएं पीरियड्स के दौरान कपड़े तक का इस्तेमाल नहीं करती। कीर्ति बताती हैं कि शुरुआत में हमने देखा कि औरतें बिलकुल भी जागरूक नहीं है। कई जगहों पर तो कपड़े तक का इस्तेमाल नहीं किया जाता। माहवारी के दौरान महिलाएं घर से निकलती तक नहीं, पहने हुए कपड़े में जब खून लग जाता तो उसे धो देती हैं और वापस से वही कपड़ा पहन लेती हैं। कुछ जगहों में महिलाएं साड़ी के प्लेट को दोनों जांघों के बीच में दबा लेती हैं।
सैनेटरी नैपकिन की जानकारी की कमी और लोगों तक उसकी पहुंच नहीं होने की वजह से कई ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में लड़कियों की हाजिरी में भी कमी देखी जाती है। पीरियड्स में लड़कियां स्कूल ही जाना छोड़ देती हैं।
आज कई निजी संस्थाएं इस ओर जागरूकता के लिए काम कर रही हैं। यहां तक की कुछ सरकार भी इस दिशा में काम करती हुई दिख रही। बिहार सरकार की ही बात करें तो महिलाओं के लिए चलाए गए पूर्व प्रोजेक्ट “महिला सामख्या” के तहत महिलाओं को सैनेटरी नैपकिन बनाने की ट्रेनिंग दी गई। इससे महिलाओं को दो फायदा हुआ। पहला महिलाओं को रोज़़गार मिला साथ ही महिलाएं कपड़े की जगह सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करने लगीं।
छत्तीसगढ़ में एक सुचिता योजना के तहत इन दिनों किशोरी लड़कियों को वेंडिंग मशीन से सैनेटरी नैपकिन उपलब्ध करवाया जा रहा। मशीन में पैसे डालते ही एक नैपकिन बाहर आ जाता है। यहां इस्तेमाल किए गए नैपकिन को बर्न करने की भी सुविधा है। इस मशीन के लगने से वहां के स्कूलों में लड़कियों के अटेंडेंस में भी वृद्धि हुई है।
महावारी के दौरान साफ सफाई पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी होता है। डॉक्टर्स की मानें तो हमें हर 6 से 7 घंटे में पैड या कपड़े बदलने चाहिए, वरना इंफेक्शन का खतरा बना रहता है। महिला हो या पुरुष उनके प्राइवेट पार्ट्स की सफाई बहुत ज़रूरी है। महिलाओं में प्राइवेट पार्ट्स में इन्फेक्शन से कई बीमारियों का खतरा बना रहता है। बार्थोलिन सिस्ट, यूरिन इन्फेक्शन जैसी कई भयावह बीमारियां झेलनी पड़ सकती हैं। बात जब पीरियड्स के दिनों की हो तो इन्फेक्शन का खतरा और भी बढ़ जाता है।
ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी इलाकों में भी देखा जाता है कि महिलाएं एक ही कपड़ो का कई बार इस्तेमाल करती हैं। वो यूज कपड़ो को धोकर वापस से इस्तेमाल करती हैं। सबसे ज़्यादा चिंता की बात तो यह है कि उन कपड़ो को सही से सुखाया नहीं जाता।
जाहिर सी बात है, जिस समाज में महिलाओं के अंडरगार्मेंट्स को खुले में सुखाने की इजाजत ना हो वहां पीरियड्स के कपड़ो को खुले में सुखाना तो एक बड़ा अपराध ही माना जाएगा। धूप ना लगने पर कपड़े के किटाणु उसमें ही रह जाते हैं। यहाँ तक कि उन कपड़ों को धोने तक के लिए भी प्राइवेसी नहीं मिलती। कई बार तो महिलाएं गीले कपड़ो का ही इस्तेमाल कर लेती हैं।
सेक्शुअल हेल्थ पर काम करते समय गुड़गांव के मुल्लाहेड़ा गांव की कुछ औरतों से बात करने पर पता चला कि उनके पास पीरियड्स के कपड़े धूप में सुखाने का कोई विकल्प ही नहीं है। उन औरतों का कहना था कि हम चाह कर भी पीरियड्स के कपड़ो को धूप में सुखा नहीं सकते और पैड खरीदने के लिए हमारे पास पैसे नहीं है।
किसी आपदा के समय शायद ही किसी का ध्यान इस ओर जाता होगा कि जो महिलाएं पीरियड्स में हैं उन्हें कपड़े या नैपकिन कैसे मिल रहे होंगे। बीबीसी की पत्रकार सीटू तिवारी बताती हैं कि एक वर्कशाप में जब मुझसे यह पूछा गया कि बाढ़ की स्थिति में वह क्या कवर करेंगी तो उनका जवाब था कि मैं उस वक्त पीरियड हुई महिलाओं की स्टोरी कवर करूंगी। उन महिलाओं को पैड या कपड़ा मिल रहा है या नहीं, अगर कपड़ा इस्तेमाल कर रही तो उसे सुखाने का कैसा इंतज़ाम है, वे अपनी साफ-सफाई का कितना ख्याल रख पा रही है।
पीरियड्स पर बात करना और इस दिशा में जागरूकता किस कदर ज़रूरी है इस बात का अंदाज़ा शायद इन बातों से लगाया जा सकता है। सरकार अगर इस दिशा में कुछ योजनाएं लाए तो बड़े स्तर पर महिलाओं को इंफेक्शन से बचाया जा सकता है।
Posted by Iti Sharan in #IAmNotDown
‘सर्वाइवर लिखें विक्टिम नहीं’, ऐसे ही 8 नियम जो यौन हिंसा पर लिखते समय याद रखने चाहिए
हममें से जो भी इसे पढ़ रहे हैं, वो एक चीज़ तो मानेंगे कि अब विचार करने का वक्त आ गया है कि यौन हिंसा पर कैसे बात की जानी चाहिए।
एक राइटर के तौर पर यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि यौन हिंसा की घटनाओं पर हम समाज का ध्यान खीचे। लेकिन ऐसा करते हुए हमें अक्सर इसका ध्यान नहीं रहता कि हमारे लिखने का तरीका भी कई बार परेशानियों को घटाने के बजाए और बढ़ा देता है।
टेक्सस असोसिएशन अगेन्स्ट सेक्शुअल असॉल्ट (TAASA) के लिए तैयार किए गए अपने एक प्रेज़ेंटेशन में टोनिया कनिंघम और हाले कोचरन ने लिखा है “भाषा उत्पीड़न का सबसे बड़ा पोषक है।” मतलब यह कि किसी घटना पर किस तरह से लिखा और पढ़ा जा रहा है उससे भी प्रभावित वर्ग का उत्पीड़न होता है। इसी समस्या को सुलझाने के लिए हमने उन चीज़ों की एक लिस्ट बनाई है जिन्हें इस मुद्दे पर लिखते वक्त ध्यान में रखा जाना चाहिए।
1. पीड़ित नहीं, सर्वाइवर।
किसी इंसान के साथ पीड़ित शब्द जोड़कर हम उसकी पूरी पहचान को एक घटना तक सीमित कर देते हैं। ऐसा करके हम उन्हें हिम्मत देने के बजाए असहाय बना रहे होते हैं। और इन सबका नतीजा होता है एक सदमा, मानसिक स्वास्थ्य पर असर, आत्मविश्वास में कमी और कानून व्यवस्था से भरोसा उठना। तो अागे से पीड़ित शब्द को सर्वाइवर से बदल दें।
2. हमेशा एक्टिव वॉय्स का इस्तेमाल करें।
“उस लड़की पर हमला किया गया।”
अमेरिकी विचारक जैकसन काट्ज़ ने इसकी व्याख्या की है कि उपर दिए गए उदाहरण की तरह पैसिव वॉय्स में लिखते हुए हमेशा सिर्फ एक इंसान की पहचान ही ज़ाहिर की जाती है, जिसे महज़ बेचारे और पीड़ित की तरह पेश किया जाता है और कहीं से भी हमलावर या किसी घटना को अंजाम देने वालों का कोई ज़िक्र नहीं होता। इससे बचने के लिए ऐसे वाक्यों का प्रयोग किया जा सकता है जिसमें हमलावर का भी ज़िक्र हो। “जैसे उस लड़की पर उस लड़के ने हमला किया।”
इसी तरह TAASA के प्रेज़ेंटेशन में यह बात कही गई है कि ‘उस लड़के ने जबरन उस लड़की के चेहरे को छुआ’ लिखना ‘उस लड़के ने उस लड़की को किस किया’ लिखने से काफी बेहतर और प्रभाव डालने वाला है। इस तरह से लिखना हमलावर के हिंसक चरित्र को भी दर्शाता है।
पैसिव वॉय्स का इस्तेमाल करने से ऐसा लगता है कि अपराध में सर्वाइवर ने भी साथ दिया है, मतलब ताली एक हाथ से नहीं बजती वाली थ्योरी। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं कि यौन हिंसा वाले अपराधों में ऐसा बिल्कुल नहीं होता।
3. ‘ये तो होना ही था’
आपकी रिपोर्ट में कहीं से भी ऐसा नहीं लिखा होना चाहिए कि सर्वाइवर के साथ ऐसा होना तो तय ही था या उसने जानबूझकर मुसीबत मोल ली। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वक्त क्या था, सर्वाइवर ने कैसे कपड़े पहने थे, क्या खाया या पीया गया था या सर्वाइवर की सेक्शुअल हिस्ट्री क्या है। भारत में 90% ऐसे अपराध को सर्वाइवर के जान पहचान वाले ही अंजाम देते हैं, लेकिन ध्यान रखिए कि उनके रिश्ते की घनिष्ठता से कोई फर्क नहीं पड़ता। जो बात मायने रखती है वो यह है कि वो घटना सर्वाइवर की सहमती से हुई या नहीं।
4. सर्वाइवर की पहचान की सुरक्षा
कभी भी सर्वाइवर के नाम, पता या वर्तमान पते का ज़िक्र ना करें। Do not reveal the survivor’s name, address, or current whereabouts. सुज़ेट जॉर्डन ने खुलकर अपने अनुभव साझा किए थे, लेकिन इसका चुनाव उनके हाथ में है, हमारे या आपके नहीं। आपकी रिपोर्ट में जिन लोगों के बारे में लिखा जा रहा है उनकी सुरक्षा और निजता का पूरा सम्मान होना चाहिए।
5. ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’
दिसंबर 2012 दिल्ली गैंगरेप मामले को बहुत लोगों ने ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ मानते हुए मौत की सज़ा को जायज़ ठहराया। ध्यान रहे, यौन हिंसा की किसी भी घटना में इस तरह की हायरैरकी बनाने से बचें। याद रहे कि सभी तरह की यौन हिंसा की घटनाएं एक समान निंदनीय है और सभी मामलो में तुरंत न्याय होना चाहिए।
6. लोगों के बयान लिखते हुए सावधानी बरतें
घटना का निष्पक्ष नज़रिया बताने के लिए चश्मदीदों, परिवारजनों, पुलिस वालों और अन्य लोगों के बयानों के ज़रिए स्टोरी में बहुत सारे एंगल को जगह देना अच्छी बात है, लेकिन TAASA के प्रेंज़ेंटेशन के हिसाब से ये बहुत संभलकर और शिष्टाचार से करना चाहिए।
“वो हमेशा लड़के लेकर आती थी।” ”उसने बहुत छोटे और भड़काऊ कपड़े पहने थे।” ” वो अक्सर शराब पीती थी।” “वो अपराधी के साथ रिलेशनशिप में थी।” ऐसे बयान या ऐसी बातें चरित्र हनन और विक्टिम ब्लेमिंग के अलावा और कुछ नहीं है। हमें अक्सर रिपोर्टिंग के दौरान ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं। फरवरी 2017 में एक नागालैंड की महिला के ऊपर रिपोर्ट करते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया ने बहुत बड़ी चूक की थी।
7. रिपोर्ट लिखते हुए जेंडर का रखे खयाल
यौन हिंसा किसे कहते हैं? इस सवाल का जवाब ढूंढने में कानून और मीडिया का रोल एक दूसरे के पूरक का ही रहा है।उदाहरण के तौर पर IPC की धारा 375 व्याख्या करती है कि एक पुरुष को किन-किन आधारों पर बलात्कार का दोषी माना जा सकता है। और 6 अलग अलग आधार दिए गए हैं और हर जगह लिखा गया है कि पुरुष कब-कब बलात्कारी कहलाता है। यौन हिंसा पर जेंडर न्यूट्रल कानूनोंके अभाव में मीडिया भी सिर्फ और सिर्फ इसी आइडिया के साथ काम करता है कि पुरुष दोषी हैं और महिलाएं पीड़ित। हो सकता है कि यह अधिकतर मामलों में सही हो लेकिन सभी मामलों में सही हो ऐसा नहीं है। स्त्री और बाल कल्याण मंत्रालय की 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार52.94% (प्रयास और सेव द चिल्ड्रेन संस्था के द्वारा किया गया सर्वे) नाबालिग पुरुषों का यौन हिंसा का निजी अनुभव रहा है।
वक्त आ चुका है कि अब इस सोच को तोड़ा जाए और लिखते हुए ट्रांस, गे पुरुष या खुद को पुरुष की तरह पहचानने वाले लोगों को बराबर का महत्व दिया जाए। शायद यही एक बड़ी वजह है कि ट्रांस लोगों के साथ होने वाली हिंसा या समान लिंग में होने वाली हिंसा की घटनाएं इतनी कम रिपोर्ट की जाती हैं।
8. ‘पुरुषों का भी होता है बलात्कार’
पुरुषों के साथ होने वाली हिंसा पर रिपोर्ट करें। लेकिन ‘भी होता’ है लिखना बंद करिए। अक्सर ऐसे मुहावरे का इस्तेमाल महिलाओं के दमन को गलत बताने के लिए किया जाता है। ये कहना कि “पुरुषों के साथ भी इतना ही बुरा होता है” पूरी तरह से पितृसत्ता और पुरुषों को मिलने वाली सहूलियतों को नज़रअंदाज़ करने जैसा है।
अगली बारी जब आप लिखने बैठें तो इन 8 प्वाइंट्स को याद रखें। और ऐसा करने से आपकी रिपोर्ट संवेदनशील और भेदभाव रहित बनेगी। तो आज से खयाल रखें कि हमारे लेख बस पुराने स्टिरियोटाइप्स को बढ़ावा देने या यौन हिंसा के सर्वाइवर्स को कमज़ोर करने के लिए ना हो।
Tuesday, February 6, 2018
मेरे सैनेटरी पैड की दास्तान
सुबह-सुबह दिमाग में आया कि पीरियड्स को लेकर थोड़ी बात की जाए जिसे लेकर मैंने कोशिश भी की और जैसा कि आपने सोशल मीडिया पर देखा ही होगा, पैड के साथ मैंने अपनी एक फोटो भी डाली। उस वक्त मैं सोच रही थी कि एक पैड अगर अपनी बात रख पाता तो क्या कहता? फिर मेरे दिमाग मे आया कि पैड भी तो खून रोकने के काम आता है और पट्टियां भी, तो हम इन दोनों में भेदभाव क्यों कर रहे हैं?
एक लड़का हाथ में चोट लगने की वजह से रुई की पट्टी लगाए घूम रहा था, उस पर खून के कुछ धब्बे भी दिखाई दे रहे थे। उसके ही साथ चल रही एक लड़की काले-नीले कपड़े पहने बार-बार पीछे मुड़कर देख रही थी कि कहीं खून का कोई धब्बा न नज़र आ जाए। पट्टी गर्व से इतरा रही था और पैड घुटन से, शर्म से छुपा जा रहा था।
सामने मंदिर आया तो पैड रुक गया। पट्टी ने पूछा, “क्या हुआ?” पैड ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “सिर्फ कुछ ही खून अंदर जा सकते हैं!”
जहां पट्टी सबके सामने इतरा कर अपने घाव दिखा रही थी, वहीं पैड चुप था। खून से लथपथ और दर्द से लैस पैड, समाज में स्वीकार्य न होने के कारण मूक रहा। पैड को बुरा लगता था कि एक लड़की दुकान पर उसे खरीदने आती और उसे काली कोठरी जैसे प्लास्टिक में भर के भेजा जाता और वहीं पट्टी मुस्कुराती हुई स्वतंत्र झूमती निकल जाती।
पट्टी जब घर जाती तो लोग उसकी सेवा में लग जाते, उस दिन किसी और रोज़ से ज़्यादा खयाल रखा जाता, पर जाने क्यों पैड को ये आज़ादी नहीं थी। घर में पैड न किचन में जाता, ना ही पिताजी के बिस्तर पर बैठता। पट्टी को भरपूर खाने को मिलता और पैड को अचार और नमक छूने की आज़ादी न होती।
गांव में तो ये पैड रुई का भी नहीं होता है। पुराने फटे कपड़ों को तह करके पीरियड्स में काम में लाया जाता है। सबके पास व्हिस्पर अल्ट्रा खरीदने को पैसे थोडें न हैं। पट्टी 10 रु. की मिल जाती है और पैड 80 रु. का। पट्टी बड़ी ही फेमस है, उसे सब जानते हैं, उसे सबने देखा है। लेकिन पैड किसी खूफिया एजेंट की तरह है जिसे न किसी ने आते देखा और न जाते। 5 दिन उस लड़की ने खून बहाया और पैड ने उसे रोका, लेकिन उसके साथ चलते दोस्तों को कोई खबर नहीं, घर में भाई को पता नहीं।
पट्टी तो कभी-कभी ही काम आती है लेकिन पैड हर महीने 12 बार। आश्चर्यचकित होती हूं कि फिर भी पैड का ज़िक्र नहीं, किसी को उसकी फिक्र नहीं।
सरकार ने पैड को लक्ज़री आइटम में डाल दिया, पैड हंसा था खुद को देखकर। वो ज़रूरत है हर 11 से 45 साल की उम्र वाली महिला की। हंसता है पैड कि कैसा समाज है जिसको लड़की के स्कर्ट पर खून का धब्बा भी नहीं देखना है और उसको रोकने के लिए पैड की व्यवस्था भी नहीं करनी है। पैड खुद को महंगा और शर्मसार महसूस करता है लेकिन पट्टी को मतलब नहीं कि पैड क्या झेल रहा है। आधी पट्टियों ने तो पैड देखा भी नहीं है।
Posted by Shivangi Choubey in Hindi, Menstruation, Society