Monday, May 23, 2016

वैवाहिक बलत्कार ! बलत्कार तो बलत्कार ही होता है 😢

जिस देश में कन्या से विवाह की अनुमति नहीं लेने की परंपरा हो, वहाँ पति से यह अपेक्षा रखना कि वह यौन की सहमति पत्नी से लेगा, एक मजाक के सिवा कुछ भी नहीं लगता. शायद दुर्भाग्यपूर्ण सच को मेनका गांधी भी स्वीकार करती रही होंगी, इसीलिये कुछ दिनो पहले उन्होने यह कहा था कि तमाम सान्स्कृतिक मूल्यो और सामाजिक बाध्यता की वजह से इस देश में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखना संभव नहीं है. इस बात की जाने माने समाजशास्त्रियों ने तीखी आलोचना की थी. लेकिन यह आधा आबादी का पुरजोर विरोध ही था, जिसने मेनका गांधी और खुद सरकार को इस सन्दर्भ में यू टर्न लेने के लिये विवश कर दिया. इस मसले से अनेक सवाल पैदा होते हैं. क्या वाकई यह आँकड़ा इतना डरावना है कि अब कानून बनाने की नौबत आ गयी है? क्या वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक बना देने से परिवार नामक संस्था टूटन की शिकार नहीं होगी? क्या दहेज एक्ट की तरह इस एक्ट का दुरुपयोग नहीं होगा? और इन सबसे बड़ा सवाल कि परिवार, घर और विवाह को बचाने के नाम पर इस भयावह हकीकत से मुकर जाना एक गंभीर असंवेदनशीलता नहीं होगी?

वैवाहिक-बलात्कार की व्याख्या से पूर्व यह समझना अतिआवश्यक है कि हमारे समाज में विवाह क्या है? विवाह हमारी संस्कृति मे एक संस्कार है. इसे पवित्र संस्था के रूप में बताया जाता है. निस्संदेह इसकी बुनियाद में आपसी प्रेम मौजूद है. जहाँ प्रेम है, वहाँ सहमति अपने आप उपस्थित हो जाता है. लेकिन यह तो हुयी सैद्धांतिक स्थिति. क्या वाकई विवाह की बुनियाद में प्रेम है? क्या वाकई दंपत्ती के बीच आपसी सहमति होती भी है? भारतीय समाज जिसमें कन्या से उसके ही विवाह में उसकी अनुमति लेना पिता आवश्यक नहीं समझता, क्या वाकई में पति सहवास के लिये पत्नी की अनुमति लेता ही होगा?जिस समाज में कन्या पराई अमानत और कन्या दान की चीज मान ली जाती हो, वहाँ पति द्वारा उसके साथ यथेच्छित व्यवहार अपने आप जायज हो जाता होगा. इस सोच ने लड़की के अस्तित्व को जुआ बनाकर रख दिया. आँकङे की बात सुने तो स्थिति भयावह दिखती है. 2013 मे 10000 लोगो पर किये गये यूनाईटेड नेशंस के सर्वे में पाया गया कि उनमे से एक चौथाई लोगो ने कभी ना कभी अपनी पत्नी से रेप किया था. यह सर्वे एशिया पर आधारित था. उनका यह मानना था कि अपनी बीवी से उसकी अनुमति के बिना सहवास करना उनका हक है.नेशनल क्राईम ब्यूरो रिकार्ड्स के अनुसार महिलाओ के खिलाफ हिंसा और वैवाहिक बलात्कार 2013 मे हुए अपराधो में सबसे बड़ा एकल अपराध था. इसके अनुसार रेप के अधिकाश मामले में परिचित ही शामिल रहे. इन परिचितो में पति भी आते हैं. इन आंकड़ो से ये बात साफ़ हो जाती है कि विवाह संस्था की हकीकत क्या है. भारत जहाँ सेक्स एक टैबू है और विवाह एक संस्कार, वहाँ वैवाहिक रेप के आंकङे आंख खोल देते हैं' एक समाज, जहाँ सेक्स पर बोलना पसंद नहीं किया जाता, वहाँ वैवाहिक रेप के ये आंकङे बताते हैं कि लोकलाज के भय से जाने कितने मामले छुपे होंगे.

इतनी भयावह तस्वीर के बावजूद भारत में संस्था की पवित्रता के नाम पर होने वाले रेप को रोकने का कोई कानून नहीं है. विडंबना नहीं तो और क्या है कि इक्कीसवीं सदी में प्रवेश के बावजूद अभी भी हम संस्थागत रूप से कितने पिछङे हुए हैं. अमेरिका समेत यूरोप के अनेक देशो में वैवाहिक बलात्कार को रोकने और दंडित करने के प्रावधान हैं. इस सन्दर्भ में आई पी सी की धारा एक विरोधाभासी पहल करती हुयी दिखायी पड़ती है. आइ पी सी की धारा 375 में रेप की व्याख्या की गयी है और धारा 376 में इस सन्दर्भ में दंड का प्रावधान किया गया है. इसके प्रावधान के अनुसार कोई व्यक्ति अपनी बीवी के साथ सहवास के लिये तब तक किसी भी दशा में अपराधी नहीं है, जब तक कि उसकी आयु सोलह साल से कम ना हो. समझ नहीं आता कि जब भारत में विवाह करने की न्यूनतम वैधानिक आयु 18 वर्ष है, तो' इस धारा को बनाने का औचित्य ही क्या है? इस पूरी समस्या का एक सामाजिक पहलू भी है. यह पहलू कानूनी पहलू से अधिक जटिल है. समस्या ये है कि यदि वैवाहिक बलात्कार को जुर्म की श्रेणी में रख दिया गया, तो क्या परिवार नामक संस्था के टूटन का खतरा पैदा नहीं हो जायेगा? क्या ऐसी दशा में इस एक्ट के दुरूपयोग का खतरा नहीं बढ जायेगा?

ऐसी दशा में इन सम्बंध से पैदा हुए बच्चो का भविश्य अंधकार में नहीं डूब जायेगा? इसीलिये कुछ समाजशास्त्री लोगो का सुझाव है कि इसका समाधान सामाजिक होना चाहिये. समाज एवं परिवार के लोग ऐसे मसलो में संबंधित लोगो पर दबाव बनाये. लेकिन क्या ये दबाव उतना प्रभावी होगा? खासकर उस समाज में जहाँ बेटी अमानत होती है और पति उसका स्वामी. दरअसल इस पूरी समस्या का तार्किक छोर कन्या को दान की चीज मान लेने में निहित है. जब तक ये भावना खत्म नहीं होगी, स्त्री का सम्मान सुनिश्चित नहीं किया जा सकता.

उपरोक्त विश्लेषन से स्पस्ट है कि वैवाहिक बलात्कार एक हकीकत है. एक संस्था को बचाने और उसे बनाये रखने के नाम पर इस त्रासदी को बनाये रखना घोर असंवेदनशीलता होगी. इस सन्दर्भ में साफ़ साफ़ कानूनी पहल की आवश्यकता है. इसके साथ साथ औरतो को पति परमेश्वर की सोच से बाहर निकालने की जरूरत भी है. क्योकि यू एन रिपोर्ट के अनुसारि तीस प्रतिशत औरते ही इसी पति का जायज हक के रूप में उचित समझती हैं. होना ये चाहिये कि ऐसे किसी भी मामले की प्राथमिकी दर्ज होने के बाद ऐसे दंपत्ति की काउंसिलींग हो. उनसे भावुक अपील हो. बीच का रास्ता निकालने और ऐसे पतियों को समझाने की पूरी कोशिश हो. अगर फ़िर भी व्यक्ति में सुधार ना हो तो उसके खिलाफ़ दंडात्मक कार्रवाइ हो. किसी भी सामाजिक संस्था को प्राकृतिक हक छीनने का कोई अधिकार नहीं. किसी सामाजिक संस्था को बचाने के नाम पर किसी की जिन्द्गी नरक बना देना, कोई समाधान नहीं. और संस्था को बचाने का पूरा दारोमदार किसी एक व्यक्ति पर ही क्यों?

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