Thursday, July 20, 2017

अगर पीरियड्स मर्दों को भी होते तब भी सैनेटरी नैपकिन इतने महंगे होते?

इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन काफी आ रहा है। देश की आधी आबादी का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ इसलिए ख़ास मौक़ों पर ख़ास जगह नहीं पहुँच पाया क्योंकि वो पीरियड्स के शुरुआती 5 दिन ऐसी अच्छी क्वालिटी के सेनेटरी नैपकिन इस्तेमाल नहीं कर पाता जो उनके फ्लो को कंट्रोल कर सके। इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाता, इसे समझने के लिये किसी ख़ास रिसर्च की ज़रूरत नहीं। हर कोई सैनेटरी नैपकिन नहीं खरीद सकता। बाज़ार में बिकने वाले सैनेटरी नैपकिन 25 रुपये से लेकर 100 रुपये तक छह से सात पीस मिलते हैं। अगर सेहत से जुड़े मानकों पर चला जाए तो 7 पीस शुरुआती दो दिन में खत्म हो जाते हैं। यानी अगर आपको इन दिनों नॉर्मल ज़िंदगी जीने के लिए बाहर आना जाना है तो 2 पैकेट सेनेटरी नैपकिन आपकी ज़रुरत हैं।

यूँ तो सैनेटरी नैपकिन लग्ज़री कैटेगरी में आने वाली चीज़ नहीं है, ये ज़रूरत है (ज़रूरत है, सिर्फ औरतों की)। लेकिन जिनके पास रहने-खाने-ओढ़ने-पहनने जैसी बेसिक ज़रूरतों का इंतेज़ाम नहीं होता बेशक उनके लिए ये लग्ज़री ही है। ऐसे में होता यही है कि हर औरत के पास इतनी आज़ादी नहीं बचती कि वो पीरियड्स के दौरान अपने काम पर जा सके, कहीं यात्रा कर सके, स्कूल जा सके, या घर के काम आसानी से निपटा सके। क्योंकि कपड़ा भले ही कितना साफ-सुथरा, अच्छी क्वालिटी का और मोटा क्यों न हो, वो होता कपड़ा ही है। जो पीरियड्स के शुरुआती दिनों के फ्लो को ज्यादा से ज्यादा एक घंटे तक रोक सकता है।

कहने वाले कहते हैं कि सैनेटरी नैपकिन की जगह कपड़ा इस्तेमाल करने से पर्यावरण को कम ख़तरा होता है। सैनेटरी नैपकिन पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं। लेकिन कभी इस पर चर्चा नहीं की जाती कि क्या हमारे देश में ऐसे वैज्ञानिक या एक्सपर्ट नहीं हैं जो ऐसे सेनेटरी नैपकिन बना सकें जिनसे पर्यावरण को नुकसान न हो? क्या सरकारें इस तरह की रिसर्च को बढ़ावा नहीं दे सकती? अब तक तो ऐसी कोई जानकारी सामने नहीं आई है कि इस दिशा में काम हो रहा है। क्या पता हो भी रहा हो, लेकिन इस काम में इतना वक़्त गुज़र गया कि कई पीढ़ियों की महिलाओं ने अपनी ज़िन्दगी बिना अच्छे किस्म के सैनेटरी नैपकिन के गुज़ार दी।

फ़र्ज़ कीजिये पीरियड्स मर्द और औरत दोनों को होते। दोनों को हर महीने के 5-6 दिन सैनेटरी नैपकिन की ज़रूरत होती। तो क्या तब भी हमारी सरकारें और प्रशासन इस चीज़ के लिए इतनी बेफिक्र होतें? जवाब आप ख़ुद सोचिये। जिस देश में मुफ्त कंडोम बॉक्स लगाए जाते हैं, वहां मुफ्त सैनेटरी पैड्स बॉक्स लगाना असंभव क्यों है? सैनेटरी नैपकिन मुफ्त दिये जाने के नाम पर कुछ सरकारी डिस्पेंसरी और अस्पतालों के नाम क्यों ले लिये जाते हैं (हालांकि मिल वहां भी नहीं पाते)? हम क्यों न मानें कि कंडोम मुफ्त इसलिए मिलते हैं क्योंकि उसका वास्ता पुरूषों से भी है। सैनेटरी नैपकिन्स इसलिए कंडोम की तरह मुफ्त नहीं मिल सकते क्योंकि उसका लेना देना सिर्फ और सिर्फ औरतों से है।

फ़िलहाल हम महिलाओं के पास यही विकल्प है कि हम बाजार में बिकने वाले सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करें ताकि महीने के 5-6 दिन हमें अपने काम, पढ़ाई और दूसरी ज़रूरी गतिविधयों को मिस न करना पड़े। भले ही वो कितना ही महंगा क्यों न हो और उस पर सरकारें कितना ही टैक्स क्यों न लगाएं क्योंकि महीने के 5-6 दिन हम कम से कम इसलिए तो नहीं गंवा सकते क्योंकि हमारी सरकारें पक्षपाती हैं। ग़ैर-ज़िम्मेदार हैं। और मर्दवादी सोच से भरी हुई हैं।

Tuesday, July 18, 2017

दर्द :- सच्ची बात !

दो टांगो के बीच से जन्म लेने के बाद
वक्षस्थल पर अपनी प्यास भूख मिटाने वाला इंसान,
बड़ा होते ही औरतो से इन्ही दो अंगों की चाहत रखता है,
और इसी चाहत में बीभत्स तरीकों को इख्तियार करता है.......
बलात्कार और फिर हत्या.....?
ये कैसी चाहत है औरत से...???
जननी वर्ग के साथ इस तरह की मानसिकता..??
वध होना चाहिए
ऐसी कुत्सित मानसिकता के लोगों का.....
बलात्कार से बड़ा कोई ज़ुर्म नहीं है धरती पर..

Monday, July 17, 2017

कितना मुश्किल होता है औरत होना

कितना मुश्किल है- औरत होना, जब तुम्हेँ हो मालूम...
कि तुम्हारा वजूद छाती पर उभरी दो गोलाईयोँ..
... और जांघों के बीच धँसे माँस के टुकड़े के अलावा और कुछ भी नहीँ...!
तुम गोश्त हो.. जिसे रोज़ बिस्तर की सेज की तश्तरी मेँ सजाया जाता है...
ढ़ककर एक उम्र तक बचाया जाता है...
किसी लज़ीज खाने की तरह...!
तारीफ़ेँ तुम्हारी आँखों की, होंठों की, गालों की..
देह के रंग की, लम्बे बालों की ज़िस्म के हर हिस्से की.. क्योंकि तुम सिर्फ़ ज़िस्म हो...!
तुम्हारा व्यक्तित्व..
कहाँ मायने रखता है इस ज़िस्म के आगे..!
'तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ज़िस्म हो..'
ये मान बैठी हो तुम भी..
सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते -फिरते
दुपट्टा संभालने की कोशिश में मरी जा रही हो..
जीँस टाप पहने भले ही झुठलाना चाहो इस सच को
पर वो क्या है?
जो तुम्हेँ टाप हमेशा नीचे खीँचते रहने को मजबूर करता है?
ज़िस्म का छूना, टकराना, चिपकना इत्तेफाकन
भी... तुम्हेँ असहज कर देता है...!
सोचो.. जानो.. समझो इनकी साज़िश, शातिर
चालों को..
जिस ज़िस्म के साथ हुई तुम आज़ाद पैदा..
उसी ज़िस्म की कैद मेँ तुम्हेँ बंदी बना रखा है...!
इस ज़िस्मानी एहसास को तोड़ निकलो बाहर..
लड़ो अपने व्यक्तित्व के लिये.. और
बता दो कि तुम बहुत कुछ हो.. इस ज़िस्म के सिवा..!

Thursday, July 13, 2017

'पीरियड में छुट्टी का दूसरा बहाना नहीं खोजना पड़ेगा'

शुभज्योति घोष
बीबीसी संवाददाता

भारत की एक मीडिया कंपनी ने अपने कर्मचारियों को माहवारी के पहले दिन पेड लीव देने की घोषणा की है.
कंपनी का कहना है कि वे इस बात की ओर लोगों का ध्यान खींचना चाहते हैं कि महिलाओं के लिए माहवारी का पहला दिन असहज होता है और इस स्थिति में वे काम करने की हालत में नहीं होती हैं.
कंपनी में 70 से 80 महिला कर्मचारी काम करती हैं और वे इस खबर से उत्साहित हैं. भारत सरकार भी ऐसी ही पॉलिसी अपनाए, इसे लेकर कंपनी के कर्मचारियों ने एक ऑनलाइन कैम्पेन भी शुरू किया है.
देश के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन ने इस फैसले का स्वागत किया है. उनका कहना है कि महीने में एक-दो दिन के काम का नुकसान कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं है.
ग़रीब लड़कियों के लिए मुफ़्त सैनिटरी पैड
आख़िर ये लड़कियां बार-बार टॉयलेट क्यों जाती हैं?

कंपनी की एचआर हेड देबलीना
कंपनी का फैसला
कई महिलाएं माहवारी के पहले दिन शारीरिक तौर पर स्वस्थ नहीं महसूस करतीं और इस वजह से वे मानसिक रूप से कभी-कभी चिड़चिड़ापन भी महसूस करती हैं.
लेकिन भारत की तरह ही बाकी दुनिया में भी महिलाओं को उन दिनों में खामोशी से अपने रोजमर्रा के दफ्तर के काम निपटाने होते हैं.
कुछ महिलाओं का मूड ठीक नहीं रहता है, कुछ को सिर दर्द, बदन दर्द, उल्टियां, तनाव जैसी दूसरी समस्याओं से रूबरू होना पड़ता है.
मुंबई की मीडिया कंपनी कल्चर मशीन ने इस हकीकत को स्वीकार करते हुए पेड लीव देने का फैसला लिया है.

ऑप्शनल लीव
कंपनी के मानव संसाधन विभाग की देबालीना एस मजूमदार कहती हैं, "महिला कर्मचारी भी पुरुषों की तरह काबिल होती हैं लेकिन कभी-कभी हम देखते हैं कि शारीरिक वजहों से वे पीछे रह जाती हैं. हमने इस मुद्दे से निपटने के लिए ये नीति अपनाई है. ये ऑप्शनल लीव है और महिला कर्मचारी जरूरी समझें तो इसका इस्तेमाल कर सकती हैं."
कॉर्पोरेट वर्ल्ड या संगठित उद्योग में पहली बार इस तरह का फैसला लिया गया है.
कंपनी की महिला कर्मचारियों का कहना है कि कोई उन्हें माहवारी की तकलीफ से निजात तो नहीं दिला सकता लेकिन इससे काम करने का माहौल जरूर बेहतर हो जाता है और उन्हें बेवजह इस बात को लेकर शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा.
किसी ने यहां तक कहा कि घर में बैठकर कॉफी पीने के लिए उन दिनों में बीमारी का कोई दूसरा बहाना नहीं खोजना पड़ेगा.

ट्रेड यूनियनों की राय
लेकिन इस फैसले पर ट्रेड यूनियन क्या सोचते हैं?
ट्रेड यूनियन सीटू के तपन सेन कहते हैं, "ये फैसला बिजनेस फ्रेंडली है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. सबसे अहम बात ये है कि ये एक ह्यूमन फ्रेंडली डिसीज़न है और इस वजह से हर किसी को इसका स्वागत करना चाहिए."
उनका ये भी कहना है, "हर सेक्टर में महिला कर्मचारियों को अगर ये सुविधा दी जाती है तो इससे ज्यादा नुकसान नहीं होगा क्योंकि भारत में काम करने वाले लोगों में महिला तबके की संख्या पहले से ही कम है. अगर उन्हें महीने में एक या दो दिन छुट्टी मिल भी जाती है तो इससे ज्यादा नुकसान नहीं होगा."
उनका कहना है कि इसे छुट्टी नहीं समझा जाना चाहिए. ये एक कुदरती बात है और हर समाज को इसे समझना चाहिए. इन्हीं वजहों से मातृत्व अवकाश की व्यवस्था शुरू हुई थी.
इस बीच मीडिया कंपनी कल्चर मशीन के कर्मचारियों ने सरकार के दो केंद्रीय मंत्रियों प्रकाश जावड़ेकर और मेनका गांधी को संबोधित करते हुए ऑनलाइन पिटिशन की शुरुआत की है.