Monday, July 17, 2017

कितना मुश्किल होता है औरत होना

कितना मुश्किल है- औरत होना, जब तुम्हेँ हो मालूम...
कि तुम्हारा वजूद छाती पर उभरी दो गोलाईयोँ..
... और जांघों के बीच धँसे माँस के टुकड़े के अलावा और कुछ भी नहीँ...!
तुम गोश्त हो.. जिसे रोज़ बिस्तर की सेज की तश्तरी मेँ सजाया जाता है...
ढ़ककर एक उम्र तक बचाया जाता है...
किसी लज़ीज खाने की तरह...!
तारीफ़ेँ तुम्हारी आँखों की, होंठों की, गालों की..
देह के रंग की, लम्बे बालों की ज़िस्म के हर हिस्से की.. क्योंकि तुम सिर्फ़ ज़िस्म हो...!
तुम्हारा व्यक्तित्व..
कहाँ मायने रखता है इस ज़िस्म के आगे..!
'तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ज़िस्म हो..'
ये मान बैठी हो तुम भी..
सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते -फिरते
दुपट्टा संभालने की कोशिश में मरी जा रही हो..
जीँस टाप पहने भले ही झुठलाना चाहो इस सच को
पर वो क्या है?
जो तुम्हेँ टाप हमेशा नीचे खीँचते रहने को मजबूर करता है?
ज़िस्म का छूना, टकराना, चिपकना इत्तेफाकन
भी... तुम्हेँ असहज कर देता है...!
सोचो.. जानो.. समझो इनकी साज़िश, शातिर
चालों को..
जिस ज़िस्म के साथ हुई तुम आज़ाद पैदा..
उसी ज़िस्म की कैद मेँ तुम्हेँ बंदी बना रखा है...!
इस ज़िस्मानी एहसास को तोड़ निकलो बाहर..
लड़ो अपने व्यक्तित्व के लिये.. और
बता दो कि तुम बहुत कुछ हो.. इस ज़िस्म के सिवा..!

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