विवाह और मातृत्व जीवन के दो अलग पक्ष हैं. दोनों का अलग-अलग स्वतंत्र अस्तित्व होताहै.
शादी बेशक ज़रूरी है लेकिन इसकी अनिवार्यता जरुरी नहीं और इसे माँ बनने से जोड़ना तो सरासर ग़लत है. एक अविवाहिता स्त्री के मन में भी मातृत्व का उतना ही उबाल होता है जितना कि एक शादीशुदा के मन में. दूसरों के बच्चों को देखकर वह भी लालायित होती है. उन्हें छूने,प्यार करने, गोद में भरने और छाती से लगाने के लिये वो भी उतनी ही व्याकुल होती है.उसका कलेजा भी हूकता है जब किसी और की गोद में किसी बच्चे को देखती है.उस समय वह एक उछाह से भर उठती है कि काश........।
इसपर कोई भी दलील दे सकता है कि "इतना ही मन है तो शादी कर लो".परंतु शादी और मातृत्व में क्या संबंध है आखिर ? शादी एक सामाजिक बंधन है मगर मातृत्व तो स्त्री का नैसर्गिक गुण है.
तो क्या नैसर्गिक गुण पर सामाजिक बंधन जो पूरी तरह यहाँ हावी है सही है ? मैं ये नही कहती कि शादी मत करो या शादी करना ग़लत है लेकिन,
किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यदि स्त्री ताउम्र अविवाहिता रहना चाहे, या रहती है तो उसे उसके मातृत्व से वंचित करना क्यों नहीं यहाँ अमानवीय है ? उसके अंदर की ममता का गला घोंटकर उसे तड़पाना निकृष्ट कार्य क्यों नहीं है ?
स्त्री और उसके मातृत्व का सवाल हर दायरे से परे होता है. मातृत्व किसी भी स्त्री का ऐसा विचरण-क्षेत्र है जहाँ उसे निर्बाध रुप से उन्मुक्त और स्वतंत्र होने का अधिकार मिलना ही चाहिए क्योंकि यही उसके जीवन का ऐसा पक्ष है जहाँ कोई पुरुष चाहकर भी सेंध नहीँ लगा सकता. प्राकृतिक रूप से एक स्त्री के हृदय में उठने वाली मातृत्व की तरंगों पर पूर्णरुपेण उसी का अधिकार होता है तो समाज में भी उसे ये अधिकार क्यों नहीं ?
लेकिन बात फिर से यहीं आकर अटक जाती है कि यहाँ माँ बनने के लिये शादीशुदा होना नितांत अनिवार्य है. शादी के सर्टिफिकेट के बगैर माँ बनने की इजाज़त नहीँ है. यदि ऐसा हो गया तो नाक कटने की बात हो जाती है. शादी चरित्र का सर्टिफिकेट है. इसके बगैर यदि यहाँ किसी स्त्री में मातृत्व उबाल मारने लगे तो ये विनाश का संकेत है. इसलिए उस अवस्था में उसे खुद की ममतामयी भावनाओं को विष पिलाकर निष्प्राण करना पड़ता है.
कहने को हम समाज में रहते हैं. मगर समाज के दायरे में आने वाले हर प्राणी के बारे में समाज की जिम्मेदारी निभाते हैं ? अविवाहिता स्त्रियों के लिये भी समाज का उतना ही दायित्व क्यों नहीं है जितना कि विवाहिताओँ के लिये.
अविवाहिताओँ के साथ ये सौतेलापन क्यों ?
अंत में यही कहूंगीं कि मातृत्व की कामना हर स्त्री को होती है. चाहे स्त्री शादीशुदा हो, विधवा हो या फ़िर अविवाहिता. एक उम्र के बाद उसमें स्वतः ही मातृत्व का तूफान आंदोलित होने लगता है. विशेष परिस्थितियों में विशेष प्रकार के अपवाद मान्य होते हैं, यही सामान्य नियम है तो फ़िर विशेष परिस्थितियों में जिन महिलाओं की ताउम्र शादियां न हो सके उन्हें संतान-सुख से वंचित नहीँ किया जाना चाहिये. उन्हें खुद के बच्चे पैदा करने या गोद लेने के लिये स्वतंत्र किया जाना चाहिये. मातृत्व पर कोई बंधन स्वीकार्य नहीँ है. यह प्रकृति-प्रदत्त उपहार है.सभी को इसका सम्मान करना ही होगा.इसके बिना न्याय नहीं है.
मेरी लिखी बातों को हर कोई समझ नही सकता,क्योंकि मैं अहसास लिखती हूँ,और लोग अल्फ़ाज पढ़ते हैं..! अनुश्री__________________________________________A6
Tuesday, July 19, 2016
मातृत्व पर बंधन स्वीकार्य नहीँ...
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