महिला दिवस : बदलाव के आंदोलन
(संध्या शैली)
दूनिया के कई सामाजिक सुधारकों ने महिलाओं की जागरूकता और सामाजिक बदलाव में गहरे संबंध के बारे में बताया है और यह बात समय समय पर साबित भी हुई है। महिलाएं जब अपने अधिकारों की मांग को लेकर संगठित होकर सड़कों पर उतरती हैं या उतरी हैं, तब-तब समाज में एक बड़ा बदलाव करने में उन्होंने उत्प्रेरक की बड़ी भूमिका निभाई है। इतिहास में यदि हम इसे देखें तो यह एक लंबी श्रृंखला होगी, लेकिन यदि इतिहास की बात करें, जब औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी और समाज में जनतांत्रिक अधिकारों के लिये संघर्ष हो रहे थे, तब हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण आए। यहां तक कि निकट इतिहास में यदि हम देखें तो मिस के तहरीर चौक से शुरू हुए बदलाव के आंदोलन भी महिलाओं के आंदोलन से शुरू हुए। अमेरिका में जब महिलाओं ने उन्नीसवीं सदी में वोट का अधिकार हासिल करने के लिए संघर्ष शुरू किए तब उन्होंने केवल उन्हीं अधिकारों की बात नहीं की, बल्कि नस्लवादी सोच और गुलामी के खिलाफ भी आवाज बुलंद की। जर्मनी, पोलैंड, ब्रिटेन आदि देशों में औद्योगिक क्रांति के बाद होने वाले मजदूर और नागरिक आंदोलनों में महिलाओं के आंदोलनों का भी सहयोग था। इस दौरान 28 फरवरी 1909 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका के द्वारा इस दिन 1908 में हुई शहर की महिला कपड़ा मजदूरों की हड़ताल की याद में एक जलसा किया गया। उसके बाद अलग-अलग दिनों में मनाया जाने वाला महिला दिवस अंतत: नये कै लेंडर के अनुसार 8 मार्च को तय हुआ। लेकिन जो तय जुड़ा है, वह यह है कि महिला आंदोलनों ने समाज के बदलाव के आंदोलनों को एक दिशा दी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दुनिया में पहली बार हुई मेहनतकशों की क्रांति और उसके बाद पहली बार दुनिया के नक्शे पर स्थापित हुआ समाजवादी देश सोवियत संघ है। दुनिया भर की तरह रूस की जनता भी अपने देश के क्रूर और जनविरोधी शासन के खिलाफ एकजुट हो रही थी। भूख, बेरोजगारी और बीमारियों से जूझती दुनिया में जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही थी। पहले विश्व युद्ध के बाद स्थितियां और भी विकट हो गई थीं। रूस में 1905 में जार के खिलाफ एक विद्रोह हो चुका था। खूनी रविवार की घटना के बाद महिलाएं और भी संगठित होने लगी थीं जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों और आम नागरिक अधिकारों की लड़ाई को एक की लड़ाई माना। इसके बाद स्थापित हुई संसद के रूप में ड्यूमा का शासन था। लेकिन अभी भी जनता को अधिकार नहीं मिले थे। महिलाओं को भी वोट का अधिकार ड्यूमा ने नहीं दिया था। इस बीच लोग एकजुट हो रहे थे। बोल्शेविक भी सक्रिय थे। 1917 की 23 फरवरी को महिलाएं अंतत: सड़कों पर आ गई। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, जो 1911 की सोशलिस्ट वूमेन्स कांफ्रेंस में घोषित किया जा चुका था, को मनाने की प्रक्रियाओं की शुरुआत और एक मायने में क्रांति की शुरुआत उन्होंने कर दी। स्टालिनग्राद जो अब पेट्रोगाड्र कहलाता है, में महिलाओं ने रैलियां करना, सभा करना और हड़ताल करना शुरू कर दिया। इसके नेताओं का तर्क था कि महिलाओं के हक केवल महिलाओं के लिए फायदेमंद नहीं होते वरन पूरे समाज के लिए लाभकारी होते हैं। फरवरी के इस आंदोलन के बाद 5 मार्च को चार कारखानों में काम करने वाली महिलाओं और आम महिलाओं की एक बैठक में महिला मजदूरों को पुरु ष साथियों के साथ आंदोलन में शरीक होने का आह्वान किया गया और प्रस्ताव पारित किया गया कि महिलाओं के अधिकार हासिल करने का आंदोलन मजदूरों के अधिकारों के हासिल करने के आंदोलन का ही एक हिस्सा है। एक माह के बाद 17 मार्च 1917 को मास्को में महिलाएं मताधिकार की मांग को लेकर ड्यूमा के सामने धरने पर बैठ गई। मजेदार बात यह है कि पुरातनपंथी नेताओं को यह रास नहीं आ रहा था और वे कह रहे थे कि यदि महिलाएं आंदोलन में आई तो आंदोलन को क्रांतिकारी स्वरूप लेने में वक्त नहीं लगेगा। इसके बाद जो हुआ इतिहास उसका गवाह है। इसे कोई भी पढ़ सकता है। दुनिया में सबसे पहले महिलाओं को नागरिक अधिकार मजदूरों के शासन वाले देश सोवियत संघ में संविधान बनते ही मिले, जबकि उसके पहले से अपने संविधान को लेकर गर्व करने वाले अमेरिका और ब्रिटेन में महिलाओं को वोट तक करने का अधिकार 1920 के बाद मिला। फासीवाद से सोवियत संघ की हिफाजत करने की देशभक्तिपूर्ण युद्ध में महिलाएं एक बार फिर बहादुरीपूर्ण संघर्ष की अगली कतार में थीं और स्टालिन से प्रोत्साहन और प्रेरणा लेकर, उन्होंने बहादुरी के अनगिनत कारनामे कर दिखाए थे। लेकिन इसी दौर में और खासतौर पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद, युद्ध से क्षत-विक्षत देश के पुनर्निर्माण में परिवार की भूमिका का आग्रह शुरू हुआ, जिसमें माता के रूप में महिलाओं की भूमिका पर, नई पीढ़ी के पालन-पोषण पर और अन्य परंपरागत भूमिकाओं पर जोर दिया जाने लगा, जिनका पहले बोल्शेविक क्रांतिकारियों ने इतनी मजबूती से विरोध किया था। बहुत से मायनों में युद्धोत्तर दौर में महिला मोर्चे पर धक्के की शुरुआत हो चुकी थी। सोवियत संघ के 75 साल के जीवन में महिला मुक्ति के लिए संघर्ष में कई उतार-चढ़ाव आए थे। फिर भी इन वर्षो ने यह साबित किया है कि समाजवादी व्यवस्था में ही, महिलाओं की सामाजिक मुक्ति के लक्ष्य की दिशा में वास्तव में बड़ी छलांग लगाई जा सकती हैं। लेनिन ने कहा था: ‘‘सर्वहारा तब तक पूर्ण मुक्ति हासिल नहीं कर सकता है, जब तक वह महिलाओं के लिए पूर्ण मुक्ति हासिल नहीं कर लेता है।’ सोवियत संघ में महिलाएं ऐसी मुक्ति के करीब पहुंच गई थीं। मुख्य बात यह है कि महिलाओं ने दुनिया के इतिहास में अपने अधिकारों की लड़ाई को जनता के अधिकारों की लड़ाई से अलग नहीं माना बल्कि अक्सर उनके संघर्षो को अपने संघर्षो से मजबूत किया है और सामाजिक सुधार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 8 मार्च इसी सच्चाई को याद रखने और इसे दुबारा क्रियान्वित करने का दिन है।
मेरी लिखी बातों को हर कोई समझ नही सकता,क्योंकि मैं अहसास लिखती हूँ,और लोग अल्फ़ाज पढ़ते हैं..! अनुश्री__________________________________________A6
Tuesday, March 7, 2017
#अंतर्राष्ट्रीय_महिला_दिवस पर स्त्री शक्ति को प्रणाम् !
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