Thursday, April 6, 2017

नारी पूजन पर्व और रामनवमी के अवसर पर एक कविता "बराबर हूं मैं!"

कुछ विशेष अंतर नहीं है हम दोनों में 

केवल शरीर के बनावट से 

हम भिन्न हैं एक दूसरे से
शेष भावनायें, विचार और दृष्टिकोण का
अलग होना कारण है इसी भिन्न बनावट का!
फिर क्यों? किस अधिकार से
सीमा मेरे लाज की तुम नाप लेते हो?
ये अंतर मात्र अंतर है मेरी कमी नहीं
बाकी हर प्रकार से बराबर हूं मैं तुम्हारे
गर्भ में निर्माण और जन्म के प्रकार तक
आबादी के प्रवाह और दायित्वों के निर्वाह तक
मैं कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हूं बराबर तुम्हारे
फिर क्यों? किस अधिकार से
मात्रा मेरे अधिकार की तुम माप लेते हो?
मैं भी स्वतंत्र, भयमुक्त होकर
जीवन के अंतरंग क्षणों को
अपने स्मृतियों में सजाना चाहती हूं
तुम्हारी गठीली भुजाएं और चौडे सीने देखकर
मेरी आखों में डोरे नहीं पडते, परन्तु
मेरे वक्षोज का कसाव, मेरे छोटे वस्त्र देख
तुम्हारी नसों में तनाव आ जाता है!
दोष किसका है? मेरी स्कर्ट की ऊंचाई का, या
तुम्हारी सोच की निचाई का!
फिर क्यों? किस अधिकार से
मेरे चरित्र के भार को तुम तौलने लगते हो?
तुम कौन होते हो?
मेरी मर्यादा का संविधान लिखने वाले
मेरी सहनशीलता का गुणगान लिखने वाले
स्मरण करो, पुरुषोत्तम की रक्षा में
सिंहासन की इच्छा में
मुझ गर्भवती को वन में छोड़ आये थे!
राजनीतिक शिखर की कामना हेतु
अपने वर्चस्व की स्थापना हेतु
तुम ही मेरे पवित्र अथाह प्रेम का
मधुकलश तोड आये थे!
तुम कौन होते हो?
मुझे बुर्कों में फतवों में जकडने वाले
तीन तलाक का भय दिखाकर
झूठी मर्दानगी में अकडने वाले!
मैं क्यों घूंघट में छुपकर रहूं,
चौके आंगन तक रुककर रहूं?
तुम्हारी तरह मैं भी
अपने अधिकारों की बात करती हूं!
फिर क्यों? किस अधिकार से
मेरे प्रश्न सुनकर तुम खौलने लगते हो?
भूल गये इतिहास में जडे प्रमाणों को, जब
यम के फांस से तुम्हे मैने छुड़ाया था,
त्रिदेव थे किन्तु अपने सतीत्व के बल से
शिशु बना तुम्हे मैने भोजन खिलाया था!
भरी सभा में मुझे नग्न करना चाहा था तुमने
परन्तु परिणाम क्या हुआ? स्मृतियों में झांको
तुम्हारे रक्त से अपना केश मैने धुलाया था!
अग्निपरीक्षा से गुजरी विषपान किया तब उभरी
सीता, राधा, मीरा हार कभी ना मानी थी
तुम व्यसनों में डूबे थे शत्रुओं के पापी मंसूबे थे
जब शस्त्र उठाया मैने तब तुमने भृकुटी तानी थी
प्रमाण असंख्य हैं मेरे बलिदानों के
फिर क्यों? किस अधिकार से
मेरे अस्तित्व मेरी अस्मिता को तुम
अपनी नपुंसकता से रौंदने लगते हो ?

- दीप DAS'

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