सुनो,
अगर कहुँ मैं
कि तुम ग़ुलाब सी सही लेकिन
एक अंगार भी हो
कुछ ज़्यादा तो नहीं होगा न
कि जानती हो हक़ अपने
कि मुक़ाबला करना आता है तुम्हें
कि हर बात पर कान नहीं रखतीं
कि अड़ जाती हो जो सही है
कि प्रेम में प्रेयसी हो जाना
और जीवन-युद्ध में चंडी रूप
कि चाँद सी शीतलता और
सूरज सा दहकता तेज भी हो
कि प्रेम में समर्पण और
ज़िम्मेदारियों में संपूर्ण हो
कि महकती तो हो गुलाब सी
और हाथ में अनदेखा नश्तर भी साथ है
कि एकदम शुद्ध हँसी और
उतनी ही शुद्ध जीवन-यात्रा भी
कि पुरुष हो नहीं सकता
वो जो तुम हो; चाहकर भी
कि तुम प्रेम हो, समर्पण हो
ज़िद हो और पिघलती भी हो
कि स्त्री ही तो हो
तुम सा कोई और
हो भी तो नहीं सकता
समझता हूँ अब
एक पुरूष होकर भी
कि कितना भी कहुँ
कुछ ज़्यादा होगा भी नहीं
कि शब्द कम ही पड़ेंगे
कलम मौन ही रहेगी
कि स्त्री होना तो
ईश्वर को भी सुलभ नहीं.
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