मुगल साम्राज्य के पतन की अवस्था में शाही दरबार में कलाकारों को प्रश्रय नहीं मिल पाता था। इस कारण इनका पलायन अन्य क्षेत्रों में होने लगा था। इसी क्रम में 1760 के लगभग पलायित चित्रकार तत्कालीन राजधानी ‘पाटलिपुत्र वापस आ गये। इन पलायित चित्रकारों ने राजधानी के लोदी कटरा, मुगलपुरा दीवान मोहल्ला, मच्छरहट्टा तथा नित्यानंद का कुंआ क्षेत्र में तथा कुछ अन्य चित्रकारों ने आरा तथा दानापुर में बसकर चित्रकला के क्षेत्रीय रूप को विकसित किया। यह चित्रकला शैली ही ‘पटना कलम’ या ‘पटना शैली’ कही जाती है। पटना कलम के चित्र लघु चित्रों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें अधिकतर कागज और कहीं-कहीं हाथी दांत पर बनाया गया है।
सामान्यत: इस शैली में चित्रकारों ने व्यक्ति विशेष, पर्व-त्योहार, उत्सव तथा जीव-जन्तुओं को महत्व दिया। इस शैली में ब्रश से ही तस्वीर बनाने और रंगने का काम किया गया है। अधिकांशत: गहरे भूरे, गहरे लाल, हल्का पीला और गहरे नीले रंगों का प्रयोग किया गया है। इस शैली के प्रमुख चित्रकार सेवक राम, हुलास लाल, जयराम, शिवदयाल लाल आदि हैं। चूंकि इस शैली के अधिकांश चित्रकार पुरुष हैं, इसलिए इसे पुरुषों की चित्रशैली भी कहा जाता है।
मुगलोत्तर काल पटना में हांथी दांत की चित्रकारी फली-फूली और काफी विख्यात हुई। लाल चंद्र और गोपाल चंद्र इसके दो प्रसिद्ध चित्रकार थे जिन्हें बनारस के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने अपने यहां जगह दी। पटना में इसके महारथी थे दल्लूलाल। पटना शैली की शबीहें तैयार करने में इनका योगदान उल्लेखनीय है।
ब्रिटिश काल के अंत तक यह शैली भी लगभग अंत के करीब पहुची मिलती है। श्यामलानंद और राधेमोहन प्रसाद इसी शैली के कलाकार थे। राधेमोहन प्रसाद ने ही बाद में पटना आर्ट कॉलेज की नींव रखी थी, जो कई दशकों से देश में कला गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र है। ईश्वरी प्रसाद वर्मा भारत में पटना कलम शैली के अंतिम चित्रकार थे। करीब डेढ़ दशक पहले उनका देहांत हो गया और उनके साथ ही पटना कलम शैली भी खत्म हो गयी। उनकी पचास से ज्यादा कलाकृतिया आर्ट कॉलेज में देखी जा सकती हैं।
सामान्यत: इस शैली में चित्रकारों ने व्यक्ति विशेष, पर्व-त्योहार, उत्सव तथा जीव-जन्तुओं को महत्व दिया। इस शैली में ब्रश से ही तस्वीर बनाने और रंगने का काम किया गया है। अधिकांशत: गहरे भूरे, गहरे लाल, हल्का पीला और गहरे नीले रंगों का प्रयोग किया गया है। इस शैली के प्रमुख चित्रकार सेवक राम, हुलास लाल, जयराम, शिवदयाल लाल आदि हैं। चूंकि इस शैली के अधिकांश चित्रकार पुरुष हैं, इसलिए इसे पुरुषों की चित्रशैली भी कहा जाता है।
मुगलोत्तर काल पटना में हांथी दांत की चित्रकारी फली-फूली और काफी विख्यात हुई। लाल चंद्र और गोपाल चंद्र इसके दो प्रसिद्ध चित्रकार थे जिन्हें बनारस के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने अपने यहां जगह दी। पटना में इसके महारथी थे दल्लूलाल। पटना शैली की शबीहें तैयार करने में इनका योगदान उल्लेखनीय है।
ब्रिटिश काल के अंत तक यह शैली भी लगभग अंत के करीब पहुची मिलती है। श्यामलानंद और राधेमोहन प्रसाद इसी शैली के कलाकार थे। राधेमोहन प्रसाद ने ही बाद में पटना आर्ट कॉलेज की नींव रखी थी, जो कई दशकों से देश में कला गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र है। ईश्वरी प्रसाद वर्मा भारत में पटना कलम शैली के अंतिम चित्रकार थे। करीब डेढ़ दशक पहले उनका देहांत हो गया और उनके साथ ही पटना कलम शैली भी खत्म हो गयी। उनकी पचास से ज्यादा कलाकृतिया आर्ट कॉलेज में देखी जा सकती हैं।
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