साक्षी मलिक तिरंगे को सलामी दे रही थी और राष्ट्रगान की धुन बज रही थी।गले में ओलम्पिक का कांस्य पदक झूल रहा था और यह सब देख रही थी गांव के नुक्कड़ पर लाला की दुकान के सामने खड़ी कजरी..
हां..गांव की होनहार बेटी कजरी। मुट्ठिया भींचे एकदम सावधान की मुद्रा..जैसे पदक साक्षी ने ना जीतकर कजरी ने जीता हो। कजरी उसका घर का नाम था स्कूल में उसका नाम कोमल वर्मा था। पांच फुट सात इंच लम्बी कजरी गांव की सबसे लम्बी लड़की थी। बचपन में मां जब बापू की रोटियां बांधकर जब खेत तक पहुंचाने की कहती थी तो कजरी उतनी स्पीड से भागकर खेत तक पहुंच जाती थी जितनी स्पीड से मां रोटियां बना भी नही पाती थी। इकलौती बेटी थी कजरी। ना कोई भाई ना कोई बहन..स्कूल के काम से लेकर घर के काम तक हर काम मे अव्वल थी कजरी। गांव वाले भी अकसर कहा करते थे। कजरी एक दिन गांव का नाम जरूर रोशन करेगी। जब भी फुरसत मिलती कजरी खेतों के कच्चे रास्तों पर दौड़ लगाने निकल पड़ती और घंटो दौड़ती रहती और बस दौड़ती ही रहती। जैसे वह पैदा ही दौड़ने के लिए हुई थी लड़कियां तो लड़कियां लड़कों मे भी कोई ऐसा ना था जो कजरी से आधे रास्ते की भी बराबरी कर ले..
आज से पांच बरस पहले ( जब वह दसवीं कक्षा की छात्रा थी ) स्कूल के मास्टर जी ने बताया की..शहर में दौड़ की प्रतियोगिता है तो कजरी बापू को उसमे हिस्सा लेने के लिए कहने लगी तो बापू ने उसे समझाया..."बेटी..वहां महंगे महंगे जूते पहनकर दौड़ने वाली लड़कियां हैं तू उनमें कहां दौड़ पाएगी..पर ना मानी कजरी दो दिन तक उसने खाना नही खाया। थक हारकर बापू ने उसका नाम शहर जाकर उस दौड़ प्रतियोगिता में लिखवा ही दिया..कजरी को आठ दिन मिले थे उस प्रतियोगिता से पहले..उसने उन आठ दिनो में कई महीने जितनी दौड़ लगा दी। आखिर पहला अवसर जो मिला था उसको शहर कि किसी दौड़ प्रतियोगिता मे हिस्सा लेने का..
नियत तारीख पर भोर में ही बस पकड़कर बापू के संग शहर के लिए निकल गई कजरी..सैंकड़ो सपनों मे रंग भरने का अवसर मिला है आज..आज के बाद कजरी..कजरी ना रहेगी कोमल वर्मा के नाम से जानी जाएगी। एक आम लड़की से खास हो जाएगी..और भी न जाने क्या क्या सोच लिया कजरी ने उस दो घण्टे के बस के सफर के दौरान..
बस से उतरकर वो दोनो आटो पकड़कर खेल के मैदान तक आ पहुंचे। खेल शुरू होने से पहले मैडिकल चैकअप हुआ उसके बाद सुबह दस बजे से दौड़ की प्रतियोगिता शुरू हुई..सौ मीटर, दो सौ मीटर, हजार मीटर, पांच हजार मीटर, रिले रेस..एक एक कर कजरी ने सभी दौड़ें बडे अन्तर से जीत ली। चारों तरफ कजरी..कजरी..कजरी बस कजरी की ही गूंज थी..शाम हो चुकी थी। कजरी सभी मैडल गले में डाले अपने बापू के साथ गांव लौटने की तैयारी कर रही थी। तभी खेल सचिव का पी ए उनके पास आया और उनसे कहा की.."आपको साहब बुला रहे हैं दस पांच मिनट की ही बात है वो दोनो उसके साथ खेल सचिव के आफिस तक आ गए। कजरी के साथ बापू जब आफिस के अन्दर जाने लगे तो उन्हे बाहर ही रूकने को कह दिया। कजरी आफिस में दाखिल हुई तो सामने कुर्सी पर लगभग पैंतीस वर्ष का एक शख्स बैठा था। उसने कुर्सी छोड़ते हुए कजरी को वैलकम करते हुए कहा.."आइये आइये कोमल वर्मा जी, भई वाह क्या खूब दौड़ लगाती हैं आप.."कहां छुपी हुई थी आप अभी तक..खेल सचिव ने हाथ पकड़ कर उसे कुर्सी पर बिठाते हुए कहा..कजरी को बड़ा सम्मान महसूस हुआ गांव की एक लड़की के लिए इतने बड़े आदमी से अपनी प्रशंसा में दो शब्द सुनने से बड़ा और क्या सम्मान होगा.."नही नही सर.. ऐसा कुछ नही बस थोड़ा बहुत दौड़ लेते हैं.."अरे आप नही जानती कोमल जी,.. आप क्या हैं..कल जोनल फिर नेशनल और फिर ओलम्पिक आप जल्द ही लेडी उसैन बोल्ट होंगी। शोहरत आपके बहुत करीब है यह कहते कहते खेल सचिव कजरी के ठीक सामने कुर्सी पर आकर बैठ गया। .."लेकिन क्या है कोमल जी आप जानती भी होगी की हर चीज की एक कीमत होती है और इस नाम, इज्जत और शोहरत को पाने के लिए थोड़े समझौते भी करने पड़ते हैं। मैं साहब से कहकर आपको आगे बढने का मौका दिलवा दूंगा बस आप..यह कहते कहते पितृ स्वरूप वह हाथ मर्यादा लांघने लगे। कजरी बेशक गांव की लड़की थी मगर वह इतनी भी अन्जान न थी उसने तुरंत उस उजली सूरत के पीछे छुपे काले विचार वाले दैत्य की असलियत को भांप लिया...
चटाक..एक थप्पड़ रसीद कर दिया कजरी ने उस खेल सचिव के मुह पर.."क्या समझते हो आप अपने आप को.. "आगे बढाने का लालच देकर आप मेरी इज्जत से खिलवाड़ करेंगे, मैं मर जाऊंगी लेकिन समझौता नही करूंगी। यह कहकर उसने आज दौड़ मे जीते हुए सारे पदक उस खेल सचिव के मुह पर फेंक मारे.."थू है आपकी इस घटिया सोच पर..यह कहकर थूक दिया कजरी ने उस सचिव के मुह पर और कमरे से बाहर निकल गई..चलो बापू चलते हैं..?? क्या हुआ बेटा..?? क्या कह रहे थे साहब..?? बापू सवाल पर सवाल पूछे जा रहे थे लेकिन कजरी बस खामोश बापू का हाथ पकड़े खींचे ले जा रही थी खुद को उस दूषित हवा से दूर जहां उसका दम घुटा जा रहा था..
चटाक..एक थप्पड़ रसीद कर दिया कजरी ने उस खेल सचिव के मुह पर.."क्या समझते हो आप अपने आप को.. "आगे बढाने का लालच देकर आप मेरी इज्जत से खिलवाड़ करेंगे, मैं मर जाऊंगी लेकिन समझौता नही करूंगी। यह कहकर उसने आज दौड़ मे जीते हुए सारे पदक उस खेल सचिव के मुह पर फेंक मारे.."थू है आपकी इस घटिया सोच पर..यह कहकर थूक दिया कजरी ने उस सचिव के मुह पर और कमरे से बाहर निकल गई..चलो बापू चलते हैं..?? क्या हुआ बेटा..?? क्या कह रहे थे साहब..?? बापू सवाल पर सवाल पूछे जा रहे थे लेकिन कजरी बस खामोश बापू का हाथ पकड़े खींचे ले जा रही थी खुद को उस दूषित हवा से दूर जहां उसका दम घुटा जा रहा था..
उस घटना को आज पूरे पांच बरस बीत चुके हैं। आज भी जब वह तिरंगे के लहराने पर राष्ट्रगान की धुन सुनती है तो उसके जख्म फिर से हरे हो जाते है। वह जानती है की दुनिया के लिए यह सिर्फ एक पदक है। लेकिन सिर्फ और सिर्फ एक लड़की ही जान सकती है कि रास्ता जितना सीधा और सरल दिखता है उतना है नही। इस पुरूष प्रधान समाज में सिर्फ खेल के मैदान में पसीना बहाकर ही नही पदक नही मिलते बल्कि और भी कीमत चुकानी पड़ती है तिरंगे को सलामी के लिए...
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